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________________ पंचम परिवर्त रहस्यभावना के बाधक तत्त्व - - - - रहस्य-भावना का चरमोत्कर्ष ब्रह्मसाक्षात्कार है। साहित्य में इस ब्रह्मसाक्षात्कार को परमार्थ प्राप्ति, प्रात्म-साक्षात्कार परमपद प्राप्ति, परम सत्य, पजर-अमर पद मादि नामों से उल्लिखित किया गया है । इसमें प्रात्म चिन्तन को रहस्यभावना का केन्द्र बिन्दु माना गया है। प्रात्मा ही साधना के माध्यम से स्वानुभूतिपूर्वक अपने मूल रूप परमात्मा का साक्षात्कार करता है । इस स्थिति तक पहुंचने के लिए उसे एक लम्बी यात्रा करनी पड़ती है । सर्वप्रथम उसे स्वयं में विद्यमान राग-द्वेष-मोहादिक विकारो को विनष्ट करना पड़ता है। ये ही विकार संसारी को जन्म-मरण के दुःख सागर मे डुबाये रहते है । इनको दूर किये बिना न साधना का साध्य पूरा होता है । और न ब्रह्मसाक्षात्कार रूप परमरहस्य तत्त्व तक पहुचा जा सकता है । यही कारण है कि प्रायः सभी साधनामो में उनसे विमुक्त होने का उपदेश दिया गया है। सांसारिक विषय-वासना: साधक कवि सांसारिक विषय-वासना पर विविध प्रकार से चिन्तन करता है । चिन्तन करते समय वह सहजभाव से भावुक हो जाता है । उस अवस्था में वह कभी अपने को दोष देता है तो कभी तीर्थंकरों को बीच में लाता है। कभी रागादिक पदार्थों की पोर निहारता है तो कभी तीर्थंकरों से प्रार्थना, विनती और उलाहने की बात करता है । कभी पश्चात्ताप करता हुभा दिखाई देता है तो कभी सत्संगति और दास्यभाव को अभिव्यक्त करता है। इन सभी भावनाओं को हिन्दी जन कवियों ने निम्न प्रकार से अपने शब्दों में गूथने का प्रयत्न किया है। कविवर बनारसीदास संसार की नश्वरशीलता पर विचार करते हुए कहते है कि सारे जीवन तूने व्यापार विया, जुना श्रादि खेला, सोना-चांदी एकत्रित किया, भोग वासनामों में उलझा रहा । पर यह निश्चित है कि एक दिन यम पायेगा मौर
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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