SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्त में यहां यह कह देना भी भावश्यक है कि छायावाद मूलतः एक साहित्यिक प्रान्दोलन रहा है जबकि रहस्यवाद की परम्परा भार परम्परा रही है । इसलिए रहस्यवाद छायावाद को अपने सुकोमल अंग में सहजभाव से भर लेता है। फलतः हिन्दी-साहित्य के समीक्षको ने यत्र-तत्र रहस्यवाद और छायावाद को एक ही तुला पर तौलने का उपक्रम किया है । वस्तुतः एक प्रसीम है, सूक्ष्म है, अमूर्त है जबकि दूसरा ससीम है, स्थूल है मौर मूर्त है । रहस्य भावना में सगुण साकार भक्ति से निर्गुण निराकार भक्ति तक साधक साधना करता है। पर छायावाद में इस सूक्ष्मता के दर्शन नहीं होते । मानवतावाद और सर्वोदयवाद को भी रहस्यवाद का पर्यायार्थक नहीं कहा जा सकता । रहस्यवाद प्रात्मपरक है जबकि मानवतावाद मौर सर्वोदयवाद समाजपरक है। रहस्यवाद वस्तुतः एक काव्यधारा है जिसमें काव्य की मूल प्रात्मा अनुभूति प्रतिष्ठित रहती है । रहस्य शब्द मूढ, गुह्य, एकान्त अर्थ में प्रयुक्त होता है। प्राचार्य मानन्दवर्धन ने ध्वनि तत्व को काव्य का 'उपनिषद्' कहा है। जिसे दार्शनिक दृष्टि से रहस्य कहा जा सकता है और काव्य की दृष्टि से 'रस' माना जा सकता है। रस का सम्बन्ध भावानुभूति से है जो वासनात्मक (चित्तवृसिरूपात्मक) अथवा मास्वा. दात्मक होती है। रहस्य की अनुभूति ज्ञाता-जेय-ज्ञान की अनुभूति है। कवि इस रहस्य की अनुभूति को तन्मयता से जोड़ लेता है जहां रस-सचरण होने लगता है। यह अनुभूति प्रात्मपरक होती है, भावना मूलक होती है। भावना शब्द का प्रयोग जैन दर्शन मे अनुचिन्तन, ध्यान अनुप्रेक्षण के प्रर्ष मेहमा है । वेदान्त मे इसी को निदिध्यासन माना है। व्याकरण में भावना को 'ज्यापार' का पर्ययार्थक कहा है । भट्टनायक इसी को भावकत्व अथवा साधारणीकरण के रूप मे स्वीकार करते हैं। यही रसानुभूति है जो सहृदय के हृदय में व्याप्त हो जाती है । भावना के अभाव में पभिव्यक्ति किसी भी परिस्थिति में संभव मही है। इसलिए कवि के लिए भावना एक साधन का काम करती है। प्राध्या. त्मिक ताव दृष्टा रहस्य की साक्षात् भावना करता है जबकि कवि उसकी भावात्मक मनुभूति करता है । जैन सापक अध्यात्मिक कवि हुए हैं जिनमें रहस्य भावना का संचार दोनों रूपो में हुमा है । उनका स्थायी भाव वैराग्य रहा है। और वे शान्तरस के पुजारी माने जाते है। 1. ध्वनेः स्वरूपं सकल-सत्कवि काव्योपनिषद् भूतम्-वन्यालोक, 1.1. 2. वैयाकरण भूषणसार, 106. 3. काव्य प्रकाश, तृतीय उल्लास, रसनिष्पत्ति, 4. काव्य में रहस्यवाद, डॉ. बबूलाल अवस्थी, प्रथम, कानपुर 1965.
SR No.010130
Book TitleMadhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy