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________________ २२ का ज्ञान द्रव्यभावरूप पुस्तकोंसे और गुरुपरंपरासे कुण्डकुन्द - पुर में ग्रन्थपरिकर्म ( चूलिका - सूत्र ) के कर्चा श्रीपद्ममुनिको प्राप्त हुआ सो उन्होंने भी छह खंडों में से पहले तीन खंडोंकी बारह हजार श्लोकप्रमाण टीका रची। कुछ काल बीतने पर श्रीश्यामकुण्ड आचार्यने सम्पूर्ण दोनों आगमोंको पढ़कर केवल एक छठे महाबन्ध खंडको छोड़कर शेष दोनों ही प्राभृतोंकी बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका बनाई । इन्हीं आचार्यने प्राकृत संस्कृत और कर्णाटक भाषाकी उत्कृष्ट पद्धति ( ग्रन्थपरिशिष्ट ) की रचना की । इसके कुछ समय पश्चात् तुम्बुलूर ग्राममें एक तुम्बुलूर नामके आचार्य हुए और उन्होंने भी छटे महाबन्ध खंडको छोड़कर शेषदोनों आगमोंकी कर्णाटकीय भाषा में ८४ हजार श्लोक प्रमित चूड़ामणि नामकी व्याख्या रची | पश्चात् उन्होंने छठे खंडपर भी सात हजार श्लोक प्रमाण पंजिका टीका की रचना की । कालान्तर में तार्किकसूर्य श्रीसमन्तभद्र स्वामीका उदय हुआ । १ लिखित ताडपत्र अथवा कागज आदिकी पुस्तकांको द्रव्य पुस्तक और उसके कथनको भाव पुस्तक कहते है. २ हेमकोषमे पद्धतिका अर्थ ग्रन्थपरिशिष्ट लिखा है । जान पडता है उक्त आचार्यने उक्तभाषाओंके व्याकरण विषयक परिशिष्ट ग्रन्थ बनाये है. और यह पद्धति शब्द उन्ही ग्रन्थोसे सम्बंध रखता है इतिहासकारोंका भी ऐसा मत है कि कर्णाटक भाषाका व्याकरण जैनऋषियोंने ही बनाया है | ३ मूल पुस्तकमे सन्ध्यापलरि इस प्रकारका पद पड़ा हुआ है परन्तु ठीक २ नही पढ़ा जाता है वह किसी नगर वा ग्रामका नाम है जहां समन्तभद्र स्वामी हुए थे 1
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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