SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और न किसी सभ्य जातिकी ओरसे एसी आज्ञाका प्रचारित किया जाना समुचित प्रतीत होता है कि अमुक मनुष्य धर्मसेवनसे वंचित किया गया और उसकी संतानपरम्परा भी धर्मसेवनसे वंचित रहेगी। सांसारिक विषयवासनाओंमें फंसे हुए मनुष्य वैसे ही धर्म कार्यों में शिथिल रहते हैं, उलटा उनको दंड भी ऐसा ही दिया जावे कि वे धर्मके कार्य न करने पावें, यह कहांकी बुद्धिमानी, वत्सलता और जातिहितैषिता हो सकती है ? सुदूरदर्शी विद्वानोंकी दृष्टिमें ऐसा दंड कदापि आदरणीय नहीं हो सकता । ऐसे मनुष्योंके किसी अपराधके उपलक्षमें तो वही दंड प्रशंसनीय हो सकता है जिससे धर्मसाधन और अपने आत्म-सुधारका और अधिक अवसर मिले और उसके द्वारा वे अपने पापोंका शमन या संशोधन कर सकें। न यह कि डूबतेको और धक्का दिया जावे! बिरादरी या जातिका यह कर्तव्य नहीं है कि वह किसीसे धर्मके कार्य छुड़ाकर उसको पापकार्योंके करनेका अवसर देवे । __ इसके सिवा जो धर्माऽधिकार किसीको स्वाभाविक रीतिसे प्राप्त है उसके छीन लेनेका किसी बिरादरी या पंचायतको अधिकार ही क्या है ? बिरादरीके किसी भाईसे यदि बिरादरीके किसी नियमका उल्लंघन हो जावे या कोई अपराध बन जावे तो उसके लिये बिरादरीका केवल इतना ही कर्तव्य हो सकता है कि वह उस भाईपर कुछ आर्थिक दंड कर देवे या उसको अपने अपराधका प्रायश्चित्त लेनेके लिये बाधित करे और जबतक वह अपने अपराधका योग्य प्रायश्चित्त न ले ले तबतक बिरादरी उसको बिरादरीके कामोंमें अर्थात् विवाह शादी आदिक लौकिक कार्योंम शामिल न करे और न बिरादारी उसके यहां ऐसे कार्यों में सम्मिलित हो । इसीप्रकार वह उससे खाने पीने लेने देने और रिश्तेनातेका सम्बध भी छोड़ सकती है। परन्तु, इससे अधिक, धर्ममें हस्तक्षेप करना बिरादरीके अधिकारसे बाह्य है और किसी बिरादरीके द्वारा ऐसा किये जानेका फलितार्थ यही हो सकता है कि वह बिरादरी, एक प्रकारसे, अपने पूज्य धर्मगुरुओंकी अवज्ञा करती है। जिन लोगों (जैनियों) के हृदयमें ऐसे दंडविधानका विकल्प उत्पन्न हो उनको यह भी समझना चाहिये कि किसीके धर्मसाधनमें विघ्न
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy