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________________ परदव्वं सगदव्वं अप्पा इदि णिच्छयणएण||५|| मूलोत्तरप्रकृतयः मिथ्यात्वादयः असंख्यलोकपरिमाणाः । परद्रव्यं स्वकद्रव्यं आत्मा इति निश्चयनयेन ।। ८५ ॥ अर्थ-अशुद्ध निश्चयनयसे कर्मोकी जो मिथ्यात्व आदि मूलप्रकृतियाँ वा उत्तर प्रकृतियाँ गिनतीमें असंख्यात लोकके बराबर हैं, वे परद्रव्य हैं अर्थात् आत्मासे जुदी हैं और आत्मा निज द्रव्य है। एवं जायदि णाणं हेयमुबादेय णिच्छये णत्थि । चिंतेजइ मुणि बोहिं संसारविरमणटे य॥ ८६ ॥ एवं जायते ज्ञानं हेयोपादेयं निश्चयेन नास्ति । चिन्तयेत् मुनिः बोधि संसारविरमणार्थ च ॥ ८६ ।। अर्थ-इस प्रकार अशुद्ध निश्चयनयसे ज्ञान हेय उपादेयरूप होता है, परन्तु पीछे उममें (ज्ञानमें ) शुद्ध निश्चयनयसे हेय और उपादेयरूप विकल्प भी नहीं रहता है। मुनिको संसारमे विरक्त होनेके लिये सम्यक्ज्ञानका (बोधि भावनाका) इसी रूपमें चिन्तवन करना चाहिये। बारसअणुवेक्खाओ पञ्चक्खाणं तहेव पडिकमणं । आलोयणं समाही तम्हा भावेज अणुवेक्खा।८७॥ द्वादशानुप्रेक्षाः प्रत्याख्यानं तथैव प्रतिक्रमणम् । आलोचनं समाधिः तस्मात् भावयेत् अनुप्रेक्षाम् ॥ ८७ ॥ अर्थ-ये बारह भावना ही प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना, और समाधि (ध्यान) स्वरूप हैं, इसलिये निरन्तर इन्हींका चितवन करना चाहिये।
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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