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________________ पंचमहब्वयमणसा अविरमणणिरोहणं हवे णियमा। कोहादिआसवाणं दाराणि कसायरहियपल्लगेहिं(?) पंचमहाव्रतमनसा अविरमणनिरोधनं भवेत् नियमात् । क्रोधादिआस्रवाणां द्वाराणि कषायरहितपरिणामैः ॥ ६२ ॥ अर्थ-अहिंसादि पांच महाव्रतरूप परिणामोंसे नियमपूर्वक हिंसादि पांचों अबतोंका आगमन रुक जाता है और क्रोधादि कषायरहित परिणामांसे क्रोधादि आनवोंके द्वार बन्द हो जाते हैं। भावार्थ-पांच महाव्रतोंसे पांच पापोंका संवर होता है और कपायोंके रोकनेसे कपाय-संबर होता है। सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुहजोगस्स गिरोहो सुद्धवजोगेण संभवदि।।६३॥ शुभयोगेपु प्रवृत्तिः संवरणं करोति अशुभयोगस्य । शुभयोगस्य निरोधः शुद्धोपयोगेन सम्भवति ।। ६३ ॥ अर्थ-मन वचन कायकी शुभ प्रवृत्तियोंसे अशुभयोगका संवर होता है और केवल आत्माके ध्यानरूप शुद्धोपयोगसे शुभयोगका संवर होता है। सुडुवजोगेण पुणो धम्मं सुकं च होदि जीवस्स । तम्हा संवरहेदू झाणोत्ति विचिंतये णिचं ॥ ६४ ॥ शुद्धोपयोगेन पुनः धर्म शुक्लं च भवति जीवस्य । तस्मात् संवरहेतुः ध्यानमिति विचिन्तयेत् नित्यम् ॥ ६४ ॥ अर्थ-इसके पश्चात् शुद्धोपयोगसे जीवके धर्मध्यान
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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