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________________ १५ हंतूण जीवरासिं महुमंसं सेविऊण सुरपाणं । परदव्वपरकलत्तं गहिउण य भमदि संसारे ||३३|| हत्वा जीवराशि मधुमांसं सेवित्वा सुरापानम् । परद्रव्यपरकलत्रं गृहीत्वा च भ्रमति संसारे ॥ ३३ ॥ अर्थ - यह प्राणी जीवोंके समूहको मार करके, शहद ( मधु ) और मांसका सेवन करके, शराब पीके, पराया धन और पराई स्त्रीको छीन करके संसार में भटकता है । जत्तेण कुणइ पात्रं विसयणिमित्तं च अहणिसं जीवो । मोहंधयारसहिओ तेण दु परिपडदि संसारे ।। ३४ ।। यत्न करोति पापं विपयनिमित्तं च अहर्निशं जीवः । मोहान्धकारसहितः तेन तु परिपतति संसारे ॥ ३४ ॥ अर्थ - यह जीव मोहरूपी अंधकारसे अंधा होकर रातदिन विषयोंके निमित्तसे जो पाप होते हैं, उन्हें यज्ञपूर्वक करता रहता है और इसीसे संसारमें पतन करता है। 'णिचिदरधादुसत्त य तरुदस वियलिंदियेसु छच्चेव । सुरणिरय तिरियचउरो चोद्दस मणुवे सदसहस्मा ३५ नित्येतरधातुसप्त च त रुद्रा विकलेन्द्रियेषु षट् चैव । सुरनिरयतिर्यक्चत्वारः चतुर्दश मनुजे शतसहस्राः ॥ ३५ ॥ अर्थ - नित्यनिगोद, इतर निगोद, और धातु अर्थात् १ गोम्मटमार के जीवकांडकी ८९ नम्बरकी गाथा भी यहीं है । यहा क्षेपक मालूम पड़ती है ।
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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