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________________ २८ वर्णन किया है । प्रथमानुयोगके ग्रंथोंसे प्रगट है कि, स्वर्गादिकके प्रायः सभी देव, देवांगना सहित, समवसरणादिमें जाकर साक्षात् श्रीजिनेंद्रदेवका पूजन करते हैं, नंदीश्वर द्वीपादिकमें जाकर जिनबिम्बोंका अर्चन करते हैं और अपने विमानोंके चैत्यालयों में नित्यपूजन करते हैं । जगह जगह शास्त्रों में नियमपूर्वक उनके पूजनका विधान पाया जाता है । परन्तु वे सब अवती ही होते हैं - उनके किसी प्रकारका कोई व्रत नहीं होता । देवोंको छोड़कर अती मनुष्योंके पूजनका भी कथन शास्त्रोंमें स्थान स्थान - पर पाया जाता है । समवसरणमें अवती मनुष्य भी जाते हैं और जिनवाणीको सुनकर उनमें से बहुतसे व्रत ग्रहण करते हैं, जैसा कि ऊपर उल्लेख किये हुए हरिवंशपुराणके कथनसे प्रगट है । महाराजा श्रेणिक भी अती ही थे, जो निरन्तर श्रीवीरजिनेंद्र के समवसरण में जाकर भगवानका साक्षात् पूजन किया करते थे । और जिन्होंने अपनी राजधानीमें, स्थान स्थानपर अनेक जिनमंदिर बनवाये थे, जिसका कथन हरिवंशपुराणादिकमें मौजूद है । सागारधर्मामृतमें पूजनके फलका वर्णन करते हुए साफ़ लिखा है कि : “दृक्पूतमपि यष्टारमर्हतोऽभ्युदयश्रियः । श्रयन्त्यहं पूर्विकया किं पुनर्वतभूषितम् ।। ३२ ।।” अर्थात् - अर्हतका पूजन करनेवाले अविरतसम्यग्दृष्टिको भी, पूजा, धन, आज्ञा, ऐश्वर्य, बल और परिजनादिक सम्पदाएँ- मैं पहले, ऐसी शीघ्रता करती हुईं प्राप्त होती हैं । और जो व्रतसे भूषित है उसका कहना ही क्या ? उसको वे सम्पदाएँ और भी विशेषता के साथ प्राप्त होती हैं । इससे यही सिद्ध हुआ कि - धर्मसंग्रहश्रावकाचार और पूजासारमें वर्णित पूजकके उपर्युक्त स्वरूपको पूजकका लक्षण माननेसे, जो व्रती श्रावक दूसरी प्रतिमाके धारक ही पूजनके अधिकारी ठहरते थे, उसका आगमसे विरोध आता है । इसलिये वह स्वरूप पूजक मात्रका स्वरूप नहीं है किन्तु ऊंचे दर्जेके नित्य पूजकका ही स्वरूप है । और इसलिये शूद्र भी ऊंचे दर्जेका नित्यपूजक हो सकता है । यहांपर इतना और भी प्रगट कर देना जरूरी है कि, जैन शास्त्रों में आच
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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