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________________ ३२ जैनमन्थरत्नाकरे ज्यों शरीर कृश सहज; सुशोभा देत है । सूज थूलता बढै; मरनको हेत है ॥ ६३ ॥ शार्दूलविक्रीडित । न ब्रूते परदूषणं परगुणं वक्त्यल्पमप्यन्वहं संतोषं वहते परर्द्धिषु पराबाधासु धत्ते शुचम् । स्वश्लाघां न करोति नोज्झति नयं नौचित्यमुल्लङ्घयत्युक्तोऽप्यप्रियमक्षमां न रचयत्येतश्चरित्रं सताम् ॥६४॥ पदपद । नहिं जंप पर दोप; अल्प परगुण बहु मानहि । हृदय धेरे संतोष दीन लखि करुणा ठानहि || उचित रीत आदरहि; विमल नय नीति न छंडहि । निज सल्हन परिहरहि; राम रचि विषय विहंडहि ॥ मंडहि न कोप दुर बचन सुन; सहज मधुर धुनि उच्चरहि । कहि कवरपाल जग जाल बसि; ये चरित्र सज्जन करहि ॥६४॥ गुणिसंगाधिकार धर्मे ध्वस्तदयो यशयुतनयो वित्तं प्रमत्तः पुमाकाव्यं निष्प्रतिभस्तपः शमदमैः शून्योऽल्पमेधः श्रुतम् । वस्त्वालोकमलोचनश्चलमना ध्यानं च वाञ्छत्यसौ यः सङ्गं गुणिनां विमुच्य विमतिः कल्याणमाकाङ्क्षति ॥ मत्तगयन्द ( सवैया ) । सो करुणाविन धर्म विचारतः नैन विना लखिवेको उमाहै । सो दुग्नीति धेरै यश हेतु, सुधी विन आगमको अवगाहै ||
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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