SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ७३ ) देखकर आश्चर्य हुआ और यह देखकर तो वह दंग रह गया कि एक साधारण मनुष्य और वाल्मीकिसे इस बेपर्वाहीके साथ बात करे । वाल्मीकिने विस्मित होकर उसकी आकृतिको देखा, मुखकी कान्ति चारों ओर फैल रही थी, ईश्वरकी भक्तिका प्रकाश सर्वत्र दैदीप्यमान था, मानों वह साधु शान्तिका अवतार था, न किसीसे राग न किसीसे द्वेष । इस दमकती हुई आकृतिने उसके हृदयपर बड़ा प्रभाव डाला, उसने पूछा, "कहो क्या कहते हो" । उत्तर मिला,-"तुम मुझको केवल इतना बता दो कि लूट मार करके तुम जिन कुटुम्बियोंका पालन पोषण करते हो, वे तुम्हारे इस कार्यके फलमें अंश लेंगे या नहीं ?" वाल्मीकि कहते हैं कि “मेरे जीवनमें यह पहली घटना थी कि यह सीधा सादा प्रश्न किया गया, मुझे पहली ही बार इसके सोचनेका समय मिला, इस लिए मैं इसका कुछ उत्तर न दे सका । मैंने यह कहा, "मैं नहीं जानता, पर यदि कहो तो घरपर जाकर सबसे पूछ आऊ" । साधुने कहा,-"जा, मैं यहां तेरे उपकारके विचारसे ठहरा रहूंगा"। ___ वाल्मीकि गया और अपने माता, पिता, भ्राता, बन्धु सबसे पूछने लगा,-"लूट मार करना पाप है, जान मारना बुरा कर्म है, यह हम तुम्हारे पालनके लिए करते हैं, क्या तुम इस पापके दण्डमें भी मेरे साथी होगे?" सबने एक वचन होकर कहा,-"इस जगत्में प्रत्येक मनुष्य अपने २ कामका उत्तरदाता है" । उनका उत्तर सुनकर वाल्मीकिके अवसान जाते रहे, काटो तो शगरमें लहू नहीं, मुखकी छबि जाती रही । वाल्मीकिने फिर कोई बात नहीं कही, सीधा उस साधुके पास चला आया और
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy