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________________ ( ३१ ) पको पहचान लेता है और दुर्मह परमात्माको प्राप्त कर लेता है, वास्तविक आनन्द यही है । इस जीवनमें मनुष्यके लिए अपरिमित और पूर्ण आनन्दका प्राप्त होना कठिन क्या वरच असम्भव प्रतीत होता है। पूर्ण आनन्दसे बुद्धिकी पूर्णता, व्युत्पत्तिका परिपाक और सौभाग्यकी पारदर्शिता अभिप्रेत है । आनन्द लोकविरुद्ध इस लिए है कि वह दुःख कष्ट और दरिद्रता होनेपर भी प्रतीत हो सकता है, क्योंकि आनन्द हृदयकी प्रसन्नता और आत्मिक सुख है और सकल बाह्य दशाओंसे बढ़कर है । आनन्दकी प्राप्ति इन चार बातों से अर्थात् समर्पण, सरलीकरण, विजय या दमन और संज्ञानसे है । समर्पण से यह तात्पर्य है कि मनुष्य अपने जीवनको औरोंकी सेवामें, किसी उत्तम कार्य में, या किसी निष्काम उद्देश्य और परमार्थकी प्राप्ति में लगा दे । जीवनका अभिप्राय यह नहीं है कि हम घटनाओंके वश होकर अपने दिन किसी न किसी प्रकार पूरे कर दें, परन्तु जीवनका अभिप्राय यह है कि हम दिनपर दिन उन्नति करके परम धर्मकी पराकाष्ठापर पहुंच जाएं । जीवनका उद्देश्य निरा धनोपार्जन नहीं है । जो मनुष्य निष्काम होकर औरोंपर दया करता है, उनसे प्रीति रखता है, उनकी सहायता करता है, उनका दुःख निवारण करता है, कायरों और पतितजनों को धीर बंधाता है, और औरोंकी सेवा करनेमें कभी २ अपने आपेको भी भुला देता है, वही मनुष्य आनन्दके ठीक मार्गपर चल रहा है । समर्पणमें मनुष्य सदा परोपकार में रत होकर यथाशक्ति अपना सर्वस्व औरोंके लिए दे डालता है और अपना और औका सुधार करते हुए उत्तम कार्योंके करनेमें व्यग्र रहता है और 1
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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