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________________ ( २३ ) अपनी जिह्वा और मनकी प्रेरणाओंको वशमें रखना चाहिये, निकम्मी बातें नहीं बनानी चाहिये, न झूठी युक्ति देनी चाहिये, और क्रोध अहंकारादिककी अतिसे बचना चाहिये । इस प्रकार वह कुछ ज्ञानका भण्डार इकट्ठा कर लेगा और यही उसका आध्यात्मिक मूलधन होगा, और फिर वह इस आध्यात्मिक ज्ञानसे संसारके लोगोंको लाभ पहुंचा सकता है, और जितना वह इसे खर्च करेगा उतना ही धनाढ्य अर्थात् श्रेयवान् होगा । इस प्रकार मनुष्य स्वर्गीय ज्ञान और स्वर्गीय धन इकट्ठा कर सकता है । जो मनुष्य अपनी तामसी वृत्तिके वशमें होकर विषयभोग और अनुचित कामनाओं के अनुसार चलता है और अपने मनको वशमें नहीं रख सकता वह आध्यात्मिक अतिव्ययी है: उसे दैवी श्रेय और स्वर्गीय सम्पत्ति कदापि नहीं प्राप्त हो सकती । यह एक शारीरिक वा भौतिक नियम है कि यदि हम किसी पहाड़की चोटी पर चढ़ना चाहते हैं तो हमें उस ओर चढ़ना चाहिये । पगडण्डी ढूंड़कर सावधानीसे उसपर चलना चाहिये और चढ़नेवालेको परिश्रम कठिनाइयों और थकनके कारण साहस नहीं छोड़ना चाहिये और न उल्टा हटना चाहिये । यदि ऐसा करेगा तो उसका प्रयोजन पूरा नहीं होगा । आध्यात्मिक नियम भी यही है । जो मनुष्य नीति या ज्ञानकी पराकाष्ठा को पहुंचना चाहता है, उसे वहां अपने ही उद्योगसे चढ़ना चाहिये । उसे मार्ग या पगडण्डी ढूंड़कर परिश्रम करके उसपर चलना चाहिये । उसे चाहिये कि धैर्यको हाथसे जाने दे और न उल्टा फिरे, वरञ्च सारी कठिनाइयों का सामना करे और कुछ कालके लिए सब प्रकार के प्रलोभन, मनोव्यथा और हृदयपीड़ाको सह ले और अन्तमें वह
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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