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________________ १० पदकम दान और पूजन, ये दो कर्म सबसे मुख्य हैं। इस विषय में पं० आशाधरजी सागरधर्मामृतमें लिखते है कि : " दानयजनप्रधानो ज्ञानसुधां श्रावकः पिपासुः स्यात् ।" - अ० १, श्लो० १५ । अर्थात् - दान और पूजन, ये दो कर्म जिसके मुख्य हैं और ज्ञानामृका पान करनेके लिये जो निरन्तर उत्सुक रहता है वह श्रावक है । भा वार्थ - श्रावक वह है जो कृषिवाणिज्यादिको गौण करके दान और पूजन, इन दो कर्मो नित्य सम्पादन करता है और शास्त्राऽध्ययन भी करता है । स्वामी कुंदकुंदाचार्य, रयणसार ग्रंथ में; इससे भी बढ़कर साफ़ तौरपर यहांतक लिखते है कि बिना दान और पूजनके कोई श्रावक हो ही नहीं सकता या दूसरे शब्दों में यों कहिये कि ऐसा कोई श्रावक ही नहीं हो सकता जिसको दान और पूजन न करना चाहिये । यथाः - " दाणं पूजा मुक्रवं सावयधम्मो ण सावगो तेण विणा । झणझणं मुक्रवं जइ धम्मो तं विणा सोवि ॥ १० ॥" अर्थात् - दान देना और पूजन करना, यह श्रावकका मुख्य धर्म है इसके विना कोई श्रावक नहीं कहला सकता और ध्यानाऽध्ययन करना यह मुनिका मुख्य धर्म है । जो इससे रहित है, वह मुनि ही नहीं है । भावार्थ-मुनियोंके ध्यानाऽध्ययनकी तरह, दान देना और पूजन करना ये दो कर्म श्रावकों के सर्व साधारण मुख्य धर्म और नित्यके कर्त्तव्य कर्म हैं । ऊपरके वाक्योंसे भी जब यह स्पष्ट है कि पूजन करना गृहस्थका धर्म तथा face और आवश्यक कर्म है विना पूजनके मनुष्यजन्म निष्फल और गृहस्थाश्रम धिक्कारका पात्र है और विना पूजनके कोई गृहस्थ या श्रावक नाम ही नहीं पा सकता. तब प्रत्येक गृहस्थ जैनीको नियमपूर्वक अवश्य ही नित्यपूजन करना चाहिये, चाहे वह अग्रवाल हो, खंडेलवाल हो, या परवार आदि अन्य किसी जातिका; चाहे स्त्री हो या पुरुष; चाहे व्रती हो या अवती;
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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