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________________ नाचायों का कारोवा पुनरुक्तत्व - एक ही अर्थ का दो बार कम कर प्रास्यिय सद्विपदलक्ष्मीरिति युक्तमेव । पुष्यलोककान्ता सामन्यकाम्या सुरसोतरा तु ॥ इस प्रकार कहकर एक ही अर्थ को पुन कहते है तस्य कपाटविस्तीर्ण मनोरमोर स्पस्थितीतस्य arefreer seenrage सर्वाङ्गिन्यपरेव लक्ष्मीः ॥२ यहाँ एक ही अर्थ का दो बार कथन होने से दोष है । कहीं पुनरुक्तता गुष्म हो जाती है। हेमचन्द्र ने गुण का उदाहरण निम्न प्रकार दिया है- प्राप्ता श्रिय anaकामदुधास्त' कि दर्श पद शिरसि विद्विषतां तत किम् । सप्रीणिता प्रणयिनो विभक्त कि कल्प स्थितं तनुभूत धनुभिस्तत किम् || " यह निर्वेद के वशीa (उदासीन) व्यक्ति का कपन होने से शान्त रस की पुष्टि करता है, मत यहाँ पुनरुक्तता गुण है, यह हेमचन्द्र का मत है । किन्तु मम्मट ने अनवीकृत्य नामक एक अन्य अर्थदोष माना है तथा उसीके उदाहरण में यह पक्ष प्रस्तुत किया है ।" यत यहाँ एक ही अर्थ का पुन पुन कथन किया गया है, अत कोई नवीनता न होने से मम्मट के अनुसार अनवीकृतत्व दोष है । भिन्नसहरत्व --- उचित सहचर की भिन्नता । यथा- श्रुतेन मुद्धिर्व्यसनेन मूर्खता मदेन जारी सलिकेन निम्मगा । निशा शशाङ्केन धृति समाधिना नयेन वालेक्रियते नरेन्द्रता ॥ यहां श्रुति-बुद्धि आदि उत्कृष्ट सहचरों से व्यसन-मूर्खता रूप निकृष्ट सहचर की मिन्नता भिन्नसहचरत्व दोष है । विरुद्धव्यंग्यत्वविरुद्ध व्यंग्य का भाव । यथा- १. काव्यानुशासन, पु० २६४ । ३. वही, १०२६७ । ५ देखिये काव्यप्रकाश, पृ० २३३ । २. बही, पृ० २६४ ॥ ४ वहीं, पु० २६७ । ६ काव्यानुशासन पु० २६७ ।
SR No.010127
Book TitleJainacharyo ka Alankar Shastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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