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________________ १४ जनाचार्यों का बलकारखाव में योगदान भरि, विषयवी, २ अणितसेन,' वाग्भट-द्वितीय और पद्मसुन्दरमणि ने समान रूप से करुण रस का विवेचन किया है, जिसमें करुण रस के विभाव, बानुभाव और व्यभिचारिभावो का उल्लेख करते हुए उसके स्थायिभाव पर प्रकाश डाला है । यह विवेचन भरत-परम्परा का पोषक है। रौद्र-रस . इसका स्थायिभाव क्रोष है। इसकी उत्पत्ति शत्रु द्वारा किये गये अपकार बादि के द्वारा होती है । भरत ने इसे राक्षस, दानव और उक्त पुरुषो के माश्रित माना है। यह रौद्ररस क्रोध, घर्षण, अधिक्षेप, अपमान, झूठ वचन, कठोर वाणी, द्रोह और माल्लय आदि विभावो से उत्पन्न होता है। __ जैनाचार्य आर्यरक्षित ने रौद्र रस का विवेचन करते हुए लिखा है किभयोत्पादक रूप, शब्द और अन्धकार के स्वरूप-चिन्तन से तथा तविषयक कथाओ के स्मरण से उत्पन्न समोह, सभ्रम विषाद और मरण रूप चिह्नो (अनुभावो) वाला रौद्ररस है। यथा-पशुहिसा मे प्रवृत्त किसी हिंसक से कोई धर्मात्मा कह रहा है-भृकुटि से भयावह मुख वाले, अधरोष्ठ को चबाने वाले, खून से लथपथ, भयकर शब्दो वाले राक्षसो के सहश तुम पशु की हिंसा कर रहे हो। अत तुम अति रौद्र-परिणामी रौद्र हो । वाग्भट-प्रथम के अनुसार रौद्र रस क्रोधात्मक होता है और क्रोध शत्रु द्वारा क्येि गये पराभव से होता है। इसका नायक भीषण स्वभाव वाला, उग्र और विरोधी होता है। अपने कन्धो को पीटना, आत्म-प्रशंसा, अस्त्र फेंकना, भृकुटि चढ़ाना, शत्रुओ की मिन्दा तथा मर्यादा का उल्लघन ये उसके अनुभात्र हैं। हेमचन्द्र ने स्त्रियो का अपमान आदि विभाव, नेत्रो की लालिमा आदि अनुभाव और उग्रता आदि व्यभिचारिभावो से युक्त क्रोध रूप स्थायिभाव वाला रौद्र रस कहा है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र का रौद्र रस विवेचन भरत का अनुगामी है। इसी प्रकार - - १ अलंकारमहोदधि, २।१८। २ शृगारार्णव-चन्द्रिका, ६७४-७७ । ३ अलंकारचिन्तामणि, ५२१०१। ४ काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ० ५५ । ५ बकबरसाहिश गार दर्पण, ४।२६-३१ । ६ नाट्यशास्त्र, ६६३, पृ० ७५ । ७ अनुपोगद्वारसूत्र, प्रथम भाग, पृ. ८४१। ८. वाग्भटालंकार, ५२२६-३० । २ काव्यानुशासन, २०१३ । १० हिन्दी नाट्यदर्पण, ३३१५ ।
SR No.010127
Book TitleJainacharyo ka Alankar Shastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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