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________________ प्रथम अध्याय : जैन-मालंकारिक और अलंकारशास्त्र काव्यालकारसार-संग्रह ' आचार्य भावदेवसूरि विरचित 'काव्यालकारसार-संग्रह' नामक ग्रन्थ संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण है । इसमे आचार्य भावदेवसूरि ने प्राचीन ग्रन्थो से सारभूत तस्वो को ग्रहण कर संग्रहीत किया है ।" यह ग्रन्थ आठ अध्यायों में विभक्त है, frent fवषयवस्तु निम्न प्रकार है प्रथम अध्याय में काव्य-प्रयोजन, काव्य-हेतु और काव्य-स्वरूप का निरूपण किया गया है । द्वितीय अध्याय में मुख्य, लाक्षणिक और व्यंजक नामक तीन शब्द-भेद, उनके अभिषा, लक्षणा और व्यजना नामक तीन अर्थमेव तथा बाच्य, लक्ष्य और व्यग्य नामक तीन व्यापारो का सक्षेप मे विवेचन किया गया है। तृतीय अध्याय मे श्रुतिकटु, च्युतसस्कृति आदि ३२ पद दोषो का निरूपण किया गया है । ये ३२ दोष वाक्य के भी होते हैं। तत्पश्चात् अपुष्टार्थ-कष्ट आदि आठ अर्थदोषो का नामोल्लेख कर किंचित् विवेचन किया गया है । चतुर्थ अध्याय मे सर्वप्रथम वामन सम्मत दस गुणों का विवेचन कर मामह और आनन्दवर्धन सम्मत तीन गुणो का विवेचन किया गया है । पुन शोभा, अभिषा, हेतु, प्रतिषेध, निरुक्ति, युक्ति, कार्य और सिद्धि नामक आठ काव्यचिन्हो का विवेचन किया है । पचम अध्याय में वक्रोक्ति, अनुप्रास, यमक, श्लेष, चित्र और पुनरुक्तवदाभास नामक छ शब्दालंकारो का सोदाहरण निरूपण किया है । षष्ठ अध्याय मे उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक यदि ५० अर्यालंकारो का विवेचन किया गया है । सप्तम अध्याय में पांचाली, लाटी, गोडी और वैदर्भी नामक चार रीतियो का निरूपण किया है । अष्टम अध्याय मे भाव, विभाव, अनुभाव आदि का मात्र नामोल्लेख है । पद्मसुन्दरगणि श्वेताम्बर जैन विद्वान पं० पद्मसुन्दरगणि नागौरी तपागच्छ के प्रसिद्ध ३ आचार्य भावदेवेन प्राध्यशास्त्र महोदधे । आदाय साररत्नानि तो अलंकार - सग्रह || -काव्यालंकारसार-संग्रह, ८/
SR No.010127
Book TitleJainacharyo ka Alankar Shastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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