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________________ ( ३४ ) शिवपुर अनुपम गस जिस अभिलाष अहमिन्द्रन प्रतें । तिस पंथ भ्रमतम विकट हग छयो मोह-पटलहिते ।। वन्दों जिनेन्द्रवचन-अमल-मणि-दीप जो न प्रकाशतो। गुरु वैद्य किं मिलतो न दृग खुलतो न शिवपथ भासतो।६ परिवर्तपंच महांधद्रह में पड़े विलख रहे सदा । अनिवार मोह महान रिपु निर्दक न उबरन दे कदा ॥ सो अरि प्रहरि तिम दहउवर सुख धरै मोइ धरम है। स्वाधीन शास्वत शान्तिरसमय भजो सुकृत परम है ॥७॥ संसार में जिय को सु हित है मोक्ष सो विधिनाश तें। विधि नाश आत्म उजास करि सुप्रकाश प्रकृति उदास तैं ।। सो कर्म रिपु नाशत सुजिन प्रतिमा चितार विलोकतै । बिन वस्त्र भूषण-शस्त्र बंदू, तीन लोक कृताकतें ॥८॥ इस जगत में नव इष्ट जियके पंच पद वृष भगवती । जिनबिम्ब जिनगह जान पान अनिष्ट कल्पित दुरमती । तिन नवन.को आश्रय उदोतक निमित जिनगृह परिमिते । सुर-नर-असुर-पति प्रोष पूज्य पवित्र बंदं जग-हिते ।।६।। ये परम नव मंगल जगात्तम परमशरण जगत्त्रये । ये ही परम हित अहितहर इनते हि मनवांछित थये । ये करहु मंगल वरसुकन्या मातु पितु हित सर्वदा । पुर अपरजन तुम हम सबनके नंदवृद्धि रहो सदा ॥१०॥
SR No.010126
Book TitleJain Viaha Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumerchand Jain
PublisherSumerchand Jain
Publication Year
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size2 MB
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