SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४३ ) इस बात को भूल कर बन्धतत्व मे जो अगुभभावो से नरकादिरुप पाप का बन्ध हो उसे बुरा जानना और शुभभावो से देवादिरुप पुण्य हो उसे भला जानना-ऐसा अनादिकाल का आचरण अगृहीत मिथ्याचारित्र है। (५) वर्तमान विशेषरुप से मनुष्यभव व जैनधर्मी होने पर भी कुदेव-कुगुरु-कुधर्म का उपदेश मानने से बन्धतत्व मे जो अशुभभावो से नरकादिरुप पाप का बन्ध हो उसे बुरा जानना और शुभभावो से देवादिरुप पुण्य का बन्ध हो उसे भला जानना--इससे अनादिकाल का श्रद्धान विशेषदृढ होने से ऐसे श्रद्धान को गृहीत मिथ्यादर्शन बताया है। (६) वर्तमान में विशेषरुप से मनुष्यभव व जैनधर्मी होने पर भी कुगुरु-कुदेव-कुधर्म का उपदेश मानने से बन्धतत्व मे जो अशुभभावो से नरकादिरुप पाप का बन्ध हो उसे बुरा जानना और शुभभावो से देवादिरुप पुण्य का बन्ध हो उसे भला जानना-इससे अनादिकाल का ज्ञान विशेष दृढ होने से ऐसे ज्ञान को गृहीत मिथ्याज्ञान बताया है। (७) वर्तमान में विशेष रुप से मनुष्य भव व जैन वर्मी होने पर भी कुगुरु-कुदेव-कुधर्म का उपदेश मानने से वन्धतत्त्व मे जो अशुभ भावो से नरकादिरुप पाप का बन्ध हो उसे बुरा जानना और शुभ भावो से देवादिरूप पुण्य का बन्ध हो उसे भला जानना-इससे अनादिकाल का आचरण विशेप दृढ होने से ऐसे आचरण को गृहीत मिथ्याचारित्र बताया है। प्र० ६७-अघातिकर्म के फल अनुसार पदार्थों का संयोग-वियोगरुप अवस्थायें होती हैं । वे सब व्ववहारनय से ज्ञान का ज्ञेय है। तत्वदृष्टि से पुण्य पाप दोनो अहितकर ही है। इस बात को भूलकर बधतत्व मे जो अशुभभावो से नरकादिरूप पाप का बध हो उसे बुरा जाननेरुप और शुभाभावो से देवादिरुप पुण्य का बध हो उसे भला जाननेरुप बंधतत्व सम्बन्धी जीव की भूलरुप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर कर्म से पूर्ण सुखीपना कैसे प्रगट होवे ? इसका उपाय छहढाला की दूसरी ढाल
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy