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________________ दर्शनादि की प्राप्ति होकर पूर्ण सुखीपना कैसे प्रगट होवे-इसका उपाय छहढाला की दूसरी ढाल मे क्या बताया है ? उ०-"चेतन को है उपयोगरुप, बिनमूरत चिन्मूरत अनूप । पुद्गल नभ धर्म अधर्मकाल, इनते न्यारी है जीव चाल ।।" (१) मै ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी जीवतत्त्व हूँ। (२) मेरा कार्य ज्ञाता द्रष्टा है। (३) आँख-नाक-कान औदारिक शरीरोरुप मेरी मूर्ति नहीं है। (४) चैतन्य अरुपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है। (५) सर्वज्ञ स्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है । (६) मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व मे अनन्त जीव द्रव्य है। (७) अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य है। (८) धर्म-अधर्म-आकाश एकेक द्रव्य है। (६) लोकत्रमाण असख्यात काल द्रव्य है। इन सव द्रव्यो से मुझ निज आत्मा का किसी भी अपेक्षा किसी भी प्रकार का कर्ताभोक्ता का सम्बन्ध नही है, क्योकि इन सब द्रव्यो का और मुझ निज आत्मा का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पृथक-पृथक है। ऐसा जान कर ज्ञानदर्शन उपयोगमयी निज जीव तत्त्व का आश्रय ले, तो गीर की अनुकूलता से मै सुखी और शरीर की प्रतिक्लता से मैं दुखी, ऐसा जीवतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूलरुप अगृहीत गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर समयग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर कम से पूर्ण अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होवे, यह उपाय छहढाला की दूसरी ढाल मे बताया है। प्र०-मै ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी जीवतत्व और नेरा कार्य ज्ञाता-द्रष्टा है। इस बात को भूलकर शरीर वर लानफलता से मै', · सुखी और शरीर की प्रतिकूलता से मै दुःखी-ऐसी मान्यता को आपने जीवतत्त्व सम्बन्धी जीव की भूलरुप अगृहीत-गृहीत मिथ्यादर्शनादि बताया है, परन्तु अपने को जो ज्ञानी मानते है वह भी शरीर की अनुकूलता से मै सुखी और शरीर की प्रतिकूलता से मै दुखी-ऐस
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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