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________________ जापुरसमयसार स्तवन ध्रुव अक्ल अंक अनुमति, पाये हुये सब सिद्ध को। में बदः श्रुतकेवली..कथित)कहू समय प्राभृत को कहो॥ १॥ नहि सनमन. प्रमन्न नाई, जो एक ज्ञायक भाव है। इस सेति शुद्ध कहाय बिरु, जो ज्ञात वो तो वो हि है॥ ६॥ व्यवहानक अभूतार्थ दगित, शुद्धतय भूतार्थ है। भूतार्थ आश्रित आत्मा, सुदृष्टि निश्चय होय है ॥ ११ ॥ भूतार्थ से जाने अजीव जीव, पुण्य पापरु निर्जरा। आस्रव सवर बन्ध मुक्ति, येहि समकित जानना ।। १३ ।। अनवद्धस्पृष्ट अनन्य अरु, जो नियत देखे आत्म को। अविशेष अनसयुक्त उसको गुद्वनय तू जानजो ॥ १४ ॥ मैं एक शुद्ध सदा अरुपी, ज्ञान हग ह यथार्थ से। कुछ अन्य वो मेरा तनिक, परमाणु मात्र नही अरे ॥ ३८॥ मैं एक गुद्ध ममत्व हीनरु, ज्ञान दर्शन पूर्ण हू ।। इसमे रह स्थित लीन इसमे, शीघ्र ये सब क्षय करू ॥ ७३ ॥ शुभ-अशुभ से जो रोककर, निजआत्म को आत्महि से। दर्शन अवरु ज्ञानहि ठहर, पर द्रव्य इच्छा परिहरे ॥ १८७॥ जो सर्व सगविमुक्त ध्याके, आत्म मे आत्माहि को। नहि कर्म अरु नो कर्म, चेतक चेतता एकत्व को॥१८८॥ वह आत्मध्याता, ज्ञानदर्शनमय आनन्दमयी हुआ । बस अल्पकाल जु कर्म से परिमोक्ष पावे आत्म का ॥ १८६॥ इसमे सदा रतिवत बन, इसमे सदा सतुष्ट रे। इससे ही वन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे ॥ २०६ ॥ छेदन करो जिव वध का तुम नियत निज-निज चिह्न से। प्रज्ञा-छैनी से छेदते दोनो पृथक हो जाय है । २६४॥ रतीय श्रृति-दर्शन केन्द्र जयपुर
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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