SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 28 ) शोधा मोक्षदायनो अपूर्व देशना ( नित्य मनन योग्य ) निर्मल ध्यानरूढ हो, कर्म कलंक नशाय । हुए सिद्ध परमात्मा वन्दत हूं जिनराय ॥१॥ इच्छुक जो निज मुक्ति का, भवभय से डरचित । उन्ही भव्य सम्बोध हित, रचा काव्य इकचित्त ॥३॥ परमात्मा को जानकर, त्याग करे परभाव । वह आत्मा पण्डित खरा, प्रगट लहे भवपार ॥८॥ गृह कार्य करते हुए, हेयाहेय का ज्ञान । ध्यावे सदा जिनेश पद, 'शीघ्र' लहे निर्वाण ॥१८॥ शुद्ध प्रदेश पूर्ण है, लोकाकाश प्रमाण । सो आतम जानो सदा, लहो 'शीघ्र' निर्वाण ॥२३॥ निश्चय लोक प्रमाण है, तनु प्रमाण व्यवहार । ऐसा आतम अनुभवो, शीघ्र लहो भवपार ॥२४॥ जो शद्धात्तम अनुभवे, व्रत-सयम संयुक्त । जिनवर भाषे जीव वह, 'शीघ्र' होय शिवयुक्त ॥३०॥ शेष अचेतन सर्व है, जीव सचेतन सार । मुनिवर जिनको जानके, शीघ्र' हुये भवपार ॥३६॥ शुद्धात्तम यदि अनुभवो, तज कर सब व्यवहार। जिन परमातम यह कहे, 'शीघ्र' होय भवपार ॥३७॥ ज्यों रमता मन विषय मे, ज्यो जो आतम लीन । मिले 'शीघ्र' निर्वाण-पद, धरे न देह नवीन ॥५०॥
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy