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________________ ( २६३ ) प्र० १० पर्याय मे जीव-पुद्गल के परस्पर निमित्त से अनेक क्रियायें होती है उन्हे जीव अजीव के मिलाप से मानने वाला उभयाभासी की मान्यता की तरह दिगम्बर धर्मो का जीव अजीव का ज्ञान झूठा क्यो है ? उत्तर - यह जीव के भाव है उसका पुद्गल निमित्त हे । यह पुद्गल की क्रिया है उसका जीव निमित्त है। ऐसा भिन्न-भिन्न स्वतंत्र निमित्त नैमित्तक का ज्ञान न होने से दिगम्बर धर्मी झूठा ही है । प्र० ११ - इत्यादि भाव भासित हुये बिना दिगम्बर धर्मो को जीव - अजीव का सच्चा श्रद्धानी नही कहते - यह कहने का क्या भाव है ? उत्तर- मुझ आत्मा ज्ञान दर्शन का धारी जीव तत्व है। शरीरादि सर्वथा अजीव तत्व है। इसके साथ मेरा किसी भी अपेक्षा किसी भी प्रकार से कर्त्ता - भोक्ता का सम्बन्ध नही है - ऐसा जानकर आस्रवबध का अभाव करके सवर - निर्जरा न प्रगट करे तो उसे जीव- अजीव का श्रद्धानी नही कहते है | प्र० १२ - जीव- अजीव के जानने का प्रयोजन क्या था ? उत्तर - अपने को आपरूप जानकर पर का अश भी अपने मे न मिलाना और अपना अश भी पर मे न मिलाना - यह जीव अजीव को जानने का प्रयोजन था । वह हुआ नही । अत दिगम्बर धर्मी होने पर, जिनाज्ञा मानने पर, निरन्तर शास्त्रों का अभ्यास करने पर और सच्चे देवादि को मानने पर भी जीव- अजीव का अन्यथापना रह जाता है । श्री समयसार गाथा ६२-६३ का मर्म प्र० १३ - यह मेरा सोने का हार है - इस वाक्य मे कैसा जानेमाने तो मिथ्यात्वादि का अभाव होकर धर्म की प्राप्ति हो ? उत्तर- (१) जैसे-सोने का हार पुद्गल से एकमेक है, आत्मा से 1
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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