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________________ ( २५३ ) शान्ति देने वाली औषधि है । मिथ्यावासनाओ से उत्पन्न ससार रूपी रोग को मिटाने वाली है । ( २ ) परन्तु विषयवासनाओ के कल्पित सुखो मे लगे हुये नपुन्सको को जिनवचन अच्छा नही लगता है । प्र० ३१ - आत्मा कैसा है ? उत्तर - शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वय ज्योति सुखधाम । दूसरा कहिये कितना, कर विचार तो पाम ।। भावार्थ - आत्मा शुद्ध-बुद्ध चैतन्यघन, स्वय ज्योति सुख का खजाना है । परम चैतन्य ज्योति स्वरूप है । यदि विचार करे तो उसकी प्राप्ति होवे । ( १ ) शुद्ध अर्थात् पवित्र है । ( २ ) बुद्ध अर्थात् ज्ञानस्वरुप है । (३) चैतन्यघन अर्थात् असंख्यात प्रदेशी है । ( ४ ) स्वय ज्योति अर्थात् सिद्ध वस्तु है । किसी से उत्पन्न और नाश नही हो सकती है । (५) सुखधाम अर्थात् अतीन्द्रिय आनन्द का खजाना है । अपनी ज्ञान की पर्याय मे ऐसे ज्ञायक भगवान को दृष्टि मे ले तो कल्याण होवे - किसी दूसरे या विकारी भावो से कुछ नही मिलेगा बल्कि दूसरे से सम्बन्ध मानेगा तो दु ख पायेगा । प्र. ३२- मुक्ति के लिये क्या करना ? उत्तर - एक देखिये जानिये, रमि रहिये इक ठौर समल विमल न विचारिये, येहे सिद्धि नही और । अर्थ – [ एक देखिये जानिये ] अर्थात् एक वस्तु त्रिकाल भगवान पूर्णानन्द को अवलोको - यह एक को जानना है । [ रमि रहिये इक ठौर ] और उस एक स्थान मे रमणता करना । [समल- विमल न विचारिये ] निश्चय से अभेद और व्यवहार से भेद ऐसा विकल्प भी नही करना । [येहे सिद्धि नही और ] यही एक मुक्ति का उपाय है दूसरा और कोई भी उपाय नही है । प्र० ३३ - ससार क्या है ? उत्तर्—'ससरणम् इति ससार " अपने आप का पता ना होना अथात् मोह, राग, द्वेष भाव ही ससार है, पर वस्तु ससार नही है ।
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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