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________________ ( २३७ ) कषाय मार्गणा है । विस्तार से (२) अनन्तानुबधी क्रोधादि चार, अप्रत्याख्यान क्रोधादि चार, प्रत्याख्यान क्रोधादि चार, संज्वलन क्रोधादि चार, हास्य - अरति रति आदि भेद से नो कषाय- इस प्रकार पच्चीस प्रकार की कषाय मार्गणा है । (३) २५ कपाय सम्बन्धी शरीर की अवस्थाये है । (४) २५ कषाय सम्बन्धी चारित्र मोहनीय द्रव्य कर्म का उदय भी है । (५) २५ कषाय सम्बन्धी राग भी है । (६) परन्तु अकषाय त्रिकाली स्वभाव वाला आत्मा त्रिकाल पडा है । (७) उसका आश्रय लेकर पर्याय मे स्वरुपाचरण - देश चारित्र सकल चारित्र - यथाख्यात चारित्र प्रगट करके परम यथाख्यात चारित्रप्रगट होवे - यह मर्म है । प्र० ३६७ - ( १ ) आत्मा की २५ कषाय सम्बन्धी शरीर की अवस्था है । आत्मा के कषाय सम्बन्धी द्रव्य कर्म का उदय है - यह किस अपेक्षा कहा जाता है उत्तर- अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से कहा जाता है, परन्तु ऐसा है नही, क्योकि आत्मा तो अकषाय स्वभाव वाला है । प्र० ३६८ - आत्मा मे २५ कषाय सम्बन्धी राग है - यह किस अपेक्षा कहा जाता है ? उत्तर - उपचरित सद्भूत व्यवहारनय से कहा जाता है । प्र० ३६६ - १४ मार्गणाओ मे "ज्ञान मार्गणा" बतलाने के पीछे क्या रहस्य है ? - उत्तर- (१) मति, श्रुत, अवधि मन पर्यय और केवलज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और कुअवधि इस प्रकार आठ प्रकार की ज्ञान मार्गणा है । (२) इन भेदो से रहित त्रिकाल ज्ञान स्वरुप भगवान आत्मा है । (३) उसका आश्रय लेकर पर्याय मे कुमति - कुश्रुत और कुअवधि का अभाव करके मति श्रुतादि प्रगट कर क्रम से केवलज्ञान की प्राप्ति होवे - यह ज्ञान मार्गणा का मर्म है ।
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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