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________________ ( १९६ ) अचक्षु दर्शन भेदरूप भी हू और मै शुद्ध ज्ञान दर्शन वाला अभेदरूप भी हू - इस प्रकार हम भेद - अभेदरूप निश्चय व्यवहार दोनो नयो का ग्रहण करते है । क्या उन महानुभावो का ऐसा कहना गलत है ? उत्तर - हाँ, बिल्कुल ही गलत है, क्योकि ऐसे महानुभावो को जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पता नही है तथा उन महानुभावो ने अभेद-भेद, निश्चय-व्यवहार दोनो नयो के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जान करके उपचरित असद्भूत व्यवहार से मै मति श्रुत चक्षुअचक्षु दर्शन वाला भी हूँ और निश्चय से मै शुद्ध ज्ञान दर्शन वाला भी हूँ - इस प्रकर भ्रमरुप प्रवर्तन से तो अभेद-भेद, निश्चय व्यवहार दोनो नयो का ग्रहण करना जिनवाणी मे नही कहा है । प्र० १८५ मै मतिश्रुत, चक्षु अचक्षु दर्शन वाला हू यदि ऐसा भेदरुप उपचरित असद्भूत व्यवहास्नय असत्यार्थ है तो भेदरूप उपचिरत असद्भूत व्यवहारनय का उपदेश जिनवाणी मे किस लिये दिया ? मै शुद्ध ज्ञान - दर्शन वाला हू - ऐसे एकमात्र अभेद निश्चयनय का ही निरुपण करना था ? उत्तर- (१) ऐसा ही तर्क समयसार मे किया है । वहाँ उत्तर दिया है कि जिस प्रकार म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा विना अर्थ ग्रहण कराने को कोई समर्थ नही है, उसी प्रकार मैं मति श्रुत, चक्षु अचक्षु दर्शन वाला हूँ - ऐसे भेदरूप उपचरित असद्भूत व्यवहार के बिना, मै शुद्ध ज्ञान-दर्शन वाला हूँ -- ऐसे अभेद परमार्थ का उपदेश अशक्य है । इसलिये मै मति श्रुत, चक्षु अचक्षु दर्शन वाला हूँ -- ऐसे भेदरुप उपचरित असदभूत व्यवहारनय का उपदेश है । (२) मै शुद्ध ज्ञान-दर्शन वाला हूँ - ऐसे अभेदरूप निश्चय का ज्ञान कराने के लिये मैमति श्रुत, चक्षु अचक्षु दर्शन वाला हूँ ऐसे भेदरुप उपचरित असद्भूत व्यवहार का उपदेश है । भेदरुप व्यवहारनय है, उसका उपदेश भी है, जानने योग्य है, परन्तु भेदरुप उपचरित असद्भूत व्यवहारनय अगीकार करने योग्य नही है ।
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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