SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १९६) है-इसमें कौनसा नय लागू पडेगा? उत्तर-उपचरित असद्भूत व्यवहारनय । प्र० १७८-उपचरित असद्भुत व्यवहारनय से जीव को मतिश्रुत और चक्षु-अचक्षुदर्शन है - इस पर निश्चय व्यवहार के दस प्रश्नोत्तरी को समझाइयेगा? उत्तर-१७६ प्रश्नोत्तर से १८८ प्रश्नोत्तर तक नीचे पढियेगा। प्र० १७६-कोई चतुर कहता है कि मै शुद्ध दर्शन-ज्ञान वाला हू-ऐसे अभेद निश्चयनय का तो श्रद्धान करता हूँ और उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से मै मतिश्रुत और चक्षु-अचक्षुदर्शन वाला हू- ऐसे भेदरुप व्यवहार की प्रवृति करता है। परन्तु आपने हमारे निश्चय-व्यवहार दोनो को झूठा बता तो हम निश्चय व्यवहार को किस प्रकार समझे तो हमारा माना हुआ निश्चय-व्यवहार सत्याथ कहलावे? उत्तर-(१) मै बुद्ध ज्ञान-दर्शनवाला है-ऐसा अभेदरूप निश्चयनय से जो निरुपण किया हो, उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अगीकार करना । (२) और मै मतिश्रत-चक्षु अचक्षु दर्शन वाता हूँ ऐसा उपचरित असद्भुत व्यवहारनय से जो निरुपण किया हो, उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोडना। प्र० १८०-मैं मतिश्रुत-चक्ष-अचक्षु दर्शन वाला हूं-ऐसे उपचरित असद्भत व्यवहारतय के त्याग करने का और मै शुद्ध दर्शन-ज्ञान वाला हूं-ऐसे अभेदरुप निश्चयनय को अंगीकार करने का आदेश कही भगवान अमृत चन्द्राचार्य ने दिया है ? उत्तर-(१) समयसार कलश १७३ मे आदेश दिया है कि मिथ्यादृष्टि की ऐसी मान्यता है कि निश्चय से मै तुद्ध ज्ञान-दर्शन वाला हूँ और उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से मै मति-श्रुत-चक्षुअचक्षु दर्शनवाना हैं। यह मिथ्या अध्यवसाय है और ऐसे-ऐसे
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy