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________________ ( १७६ ) प्र० ८५-प्रश्न ८४ मे व्यवहारनय से मोक्ष मार्ग की पहचान कराई । तब ऐसे व्यवहानय को कैसे अंगकार नहीं करना चाहिये ? सो समझाइये। उ०-पर द्रव्य का निमित्त मिटने की अपेक्षा से व्रत-शीलसयमादिक को मोक्ष मार्ग कहा-सो इन्ही को मोक्षमार्ग नही मान लेना, क्योकि (१) पर द्रव्य का ग्रहण-त्याग आत्मा के हो तो आत्मा पर द्रव्य का कर्ता-हर्ता हो जावे। परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के आधीन नहीं है। इसलिए आत्मा अपने भाव जो रागादिक है, उन्हे छोडकर वीतरागी होता है। (३) इसलिये निश्चय से वीतराग भाव ही मोक्षमार्ग है। (४) वीतराग भावो के और व्रतादिक के कदाचित कार्य-कारणपना (निमित्त-नैमित्तकपना) है, (५) इसलिए व्रतादि को मोक्षमार्ग कहे-सो कथनमात्र ही है (६) परमार्थ से बाह्य क्रिया मोक्षमार्ग नही है-ऐसा ही श्रद्धान करना। इस प्रकार व्यवहारनय अगीकार करने योग्य नही है, ऐसा जानना। प्र. ८६-जो जीव व्यवहारनय के कथन को ही सच्चा मान लेता है-उसे जिनवाणी मे किन-किन नामो से सम्बोधन किया है ? उत्तर-(१) पुरुषार्थ सिद्धिउपाय गाथा ६ मे कहा कि "तस्य देशना नास्ति' । (२) समयसार कलग ५५ मे कहा है कि "अज्ञान मोह अन्धकार है उसका सुलटना दुनिवार है" । (३) प्रवचनासार गाथा ५५ मे कहा है "वह पद-पद पर धोखा खाता है"। (४) आत्मावलोकन मे कहा है कि "यह उसका हराजादीपना है"। इत्यादि सब शास्त्रो मे मूर्ख आदि नामो से सम्बोधन किया है। प्र० ८७-जीव-अजीवादि मे हेय-ज्ञेय-उपारे प्रकार S उत्तर-शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव जिसका है वैस.. आश्रय करने योग्य परम उपादेय है। (२) आः'
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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