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________________ (१७२ ) प्र०७२-जैन शास्त्रो के अर्थ करने की पद्धति के कितने प्रश्न उत्तर-चौदह प्रश्न है। वे प्रश्न ७३ से लेकर ८६ तक के अनुसार है। प्र० ७३-उभयाभासी के दोनो नयों का ग्रहण भी मिथ्या बतला दिया तो वह दोनो नयों को किस प्रकार समझे? । उत्तर-निश्चयनय से जो निरुपण किया हो उसे सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अगीकार करना और व्यवहारनय से जो निरुपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोडना । प्र० ७४-व्यवहारनय का त्याग करके निश्चयनय को अंगीकार करने का आदेश कही भगवान अमृत चन्द्राचार्य ने दिया है ? उत्तर-हाँ दिया है। (१) समयसार कलश १७३ मे आदेश दिया है कि "सर्व ही हिसादि व अहिसादि मे जो अध्यवसाय है-सो समस्त ही छोडना-ऐसा जिन देवो ने कहा है । (२) अमृत चन्द्राचार्य कहते है कि इसलिये मै ऐसा मानता हूँ कि जो पराश्रित व्यवहार है सो सर्व ही छुडाया है। (३) तो फिर सन्त पुरुष एक परम त्रिकाली ज्ञायक निश्चय ही को अगीकार करके शुद्ध ज्ञानघन रुप निज महिमा मे स्थिति क्यो नहीं करते ? ऐसा कहकर आचार्य भगवान ने खेद प्रगट किया है। प्र० ७५-निश्चयनय को अगीकार करने और व्यवहारनय के त्याग के विषय मे भगवान कुन्द-कुन्द आचार्य ने मोक्ष प्राभूत गाथा ३१ मे क्या कहा है ? उत्तर-जो व्यवहार की श्रद्धा छोडकर निश्चय की श्रद्धा करता वह योगी अपने आत्म कार्य मे जागता है तथा जो व्यवहार में जागताहर हो वह अपने कार्य मेंासोता है,इसलियावहास्नये-कानद्धान छोडकर निश्चय का श्रद्वान करना योग्य है। IF T HEIR
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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