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________________ ( १५८ ) महासुखदाई है। इस लोक मे तो निराकुलतारूपी सुख की और यश की प्राप्ति होती है और परलोक मे वह स्वर्गादिक का सुख पाकर मोक्ष मे शिवरमणी का भर्त्ता होता है और वहाँ पूर्ण निराकुल, अतीन्द्रिय, अनुपम बाधारहित, शाश्वत अविनाशी सुख भोगता है। इसलिए हे पुत्रो! यदि तुम्हे हमारे वचनो की सत्यता प्रतीत हो तो करो और यदि हमारे वचन झूठे लगे और इनमे तुम्हारा अहित होता दिखे तो हमारे वचन अगीकार मत करो। हमारा तुमसे कोई प्रयोजन नहीं किन्तु तुम्हे दया बुद्धि से ही यह उपदेश दिया है इसलिये इसे मानो तो ठीक और न मानो तो तुम अपनी जानो ।" प्र० ४७-सम्यग्दृष्टि फिर क्या करता है ? ' उत्तर-(१) तत्पश्चात् सम्यक्दृष्टि पुरुप अपनी आयु थोडी जानकर दान, पुण्य, जो कुछ उसे करना होता है, स्वय करता है। (२) तदनन्तर उसे जिन पुरुषो से परामर्श करना होता है उनसे कर वह नि शल्य हो जाता है और सासारिक कार्यों से सम्बन्धित जो स्त्री-पुरुप है उनको विदाकर देता है और धार्मिक कार्यों से सम्बन्धित पुरुपो को अपने पास बुलाता है और जब वह अपनी आयु का अन्त अति निकट समझता है तब वह आजीवन सर्व प्रकार के परिग्रह और चागे प्रकारके आहारका त्याग करता है और समस्त परिग्रहका भार पुत्रो को सौपकर स्वय विशेष रूप से नि शल्य-वीतरागी हो जाता है। अपनीआयु के अन्त के सम्बन्ध मे सन्देह होने पर दो-चार घडी, प्रहर, दिन आदि की मर्यादापूर्वक त्याग करता है। प्र० ४८-सम्यग्दृष्टि और फिर क्या करता है ? उत्तर-तत्पश्चात् वह चारपाई से उतरकर जमीन पर सिह की तरह निर्भय होकर बैठता है जैसे शत्रुओ को जीतने के लिये सुभट उद्यमी होकर रण-भूमि मे प्रविष्ट होता है । इस स्थिति मे सम्यग्दृष्टि के अशमात्र आकुलता भी उत्पन्न नहीं होती। प्र० ४६-सम्यग्दृष्टि के किसकी इच्छा होती है ? उत्तर-उस गुद्धोपयोगी सम्यग्दृष्टि पुरुष के मोक्षलक्ष्मी का पाणि
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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