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________________ ( ११५ ) (२) निज काल पाय विधि झरना, तासो निज काज न सरना, तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसोवे ॥ भावार्थ --अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण होने पर कर्मो का खिर जाना तो प्रति समय अज्ञानी को भी होता है। वह कही शुद्धि का कारण नही होता है। आत्मा के शुद्ध प्रतपन, द्वारा जो कर्म खिर जाते है वह अविपाक अथवा सकाम निर्जरा कहलाती है। तदनुसार शुद्धि की वृद्धि होते-होते सम्पूर्ण निर्जरा होती है तब जीव सुख की पूर्णता रुप मोक्ष प्राप्त करता है- यह निर्जरा तत्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान छहढाला मे बताया है। प्र० ७५-जिन-जिनवर और जिनवर वृषभो ने 'निर्जरातत्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान' किसे बताया है ? उत्तर-जैसे गीला कम्बल को टाग दो उसमे पानी झरता रहता है और कम्बल सूख जाता है। उसी प्रकार आत्मा मे अशुद्धि की हानि शुद्धि की वृद्धि निर्जरा है। प्र० ७६-जिन-जिनवर और जिनवर वृषभो से कथित 'निर्जरातत्त्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान से क्या लाभ रहा? उत्तर-अनन्त ज्ञानियो का एक मत है-ऐसा पता चल जाता है। प्र० ७७-जिन-जिनवर और जिनवर वृषभो से कथित निर्जरा तत्त्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान' सुनकर ज्ञानी क्या जानते है और क्या करते है ? उत्तर-केवली के समान 'निर्जग तत्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान' करते है और अबन्ध स्वभावी निज भगवान मे विशेष एकाग्रता करके परमात्मा बन जाते है।
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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