SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १११ ) रहो, (इ) वे (पूर्वोक्त) करण भी उसके भले रहो, (ई) और वह चेतन-अचेतन का घात भी भले हो। परन्तु अहो! यह सम्यग्दृष्टि आत्मा रागादि को उपयोग भूमि मे न लाता हुआ, केवल (एक) ज्ञान रुप परिणमित होता हुआ, किसी भी कारण से निश्चयत. बन्ध को प्राप्त नही होता । (अहो। देखो| यह सम्यग्दर्शन की अद्भुत महिमा है) (समयसार कलश १६५ श्लोकार्थ) यह जिनवर और जिनवर वृषभो से कथित वन्धतत्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान है। प्र० ६२-जिन-जिनवर और जिनवर वृषभों से कथित 'बन्धतत्व का ज्यों का त्यों श्रद्वान' के जानने से क्या लाभ रहा? उत्तर-अनन्त ज्ञानियो का एकमत है-ऐसा पता चल जाता है। प्र० ६३-जिन-जिनवर और जिनवर वृषभों से कथित 'बन्धतत्व का ज्यों का त्यो श्रद्धान' सुनकर ज्ञानी क्या जानते है और क्या करते है ? उत्तर-केवली के समान बन्धतत्त्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान करते है और निज अबन्ध स्वभावी ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी आत्मा में विशेष एकाग्रता करके परमात्मा बन जाते है। प्र. ६४-जिन-जिनवर और जिनवर वृषभो से कथित 'बन्ध तत्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान' सुनकर सम्यक्त्व के सन्मुख पात्रभव्य मिथ्याष्टि जीव क्या जानते है और क्या करते है ? उत्तर-अहो। अहो। जिन जिनवर और जिनवर वृपभो से कथित 'बन्धतत्व का ज्यो का त्यो श्रद्धान' महान उपकारी है। मुझे तो इसका पता नही था ऐसा विचार कर अबन्ध स्वभावी ज्ञान-दर्शन उपयोग मयी आत्मा का आश्रय लेकर बहिरात्मपने का अभाव करके अन्तरात्मा बनकर ज्ञानी की तरह निज आत्मा मे विशेष एकाग्रता करके परमात्मा बन जाता है।
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy