SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६३ ) 'दौल' समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै, यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहि हो । आत्मार्थी बन्धु - सविनय जय जिनेन्द्र देव की। (१) ससार मे प्रत्येक जीव सुख चाहता है। सुख पाने के लिए अनादि से पर वस्तुओ को अपनेरूप परिणामाने का उपाय कर रहा है, लेकिन पर वस्तुएँ अपनेरूप नहीं परिणमती, इससे यह दुःखी बना रहता है । यह स्वय अनादिअनन्त जीव है, इसका एक बार आश्रय ले लें तो पर वस्तुओ के परिणमाने की जो कर्ता भोक्तावुद्धि है और पराश्रय व्यवहार की रुचि है वह छूट जावे, धर्म की प्राप्ति होकर क्रम से पूर्णता को प्राप्त करे। (२) सोना, उठना, वैठना, हाथ धोना, नहाना, हाथ जोडना, नमस्कार करना, मन्त्र जपना, मुह से पूजा आदि की क्रिया होना, किताव उठाना धरना, रोटी खाना, कपडे पहिनना, उतरना, पाँचो इन्द्रियो के भोग भोगना, पाँचो इन्द्रियां, शब्द बोलना, मन-वचन-तन तथा कर्म का उदय, उपशम, क्षयोपशम, क्षयादि आठकर्म तथा आठ कर्म के १४८ प्रकृतियां इन सब का कर्ता-कर्म, भोक्ता-भोग्य एक मात्र पुद्गल द्रव्य ही है। जीव से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नही है। ऐसी भगवान की आज्ञा है । तब मैंने रुपया कमाया, बाल-बच्चो का पालन-पोषण किया, उपदेश दिया, वाहरी अनशन अवमौदर्यादि किया इस वात के लिये अवकाश ही नही है। मैं तो अनादिअनन्त, नित्य, ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा हू । ऐसा जानकर अपने त्रिकाली कारणपरमात्मा का आश्रय ले तो अपने मे अपूर्व शान्ति आवे, जन्म-मरण का अभाव हो। (३) ससार मे अपनी आत्मा को छोडकर जो पर पदार्थ है, वह इष्ट अनिष्ट नही है परन्तु अज्ञानी को अपनी आत्मा का अनुभव नही होने से जिसको चाहता है उसमे राग करता है और इष्ट मानता है । जिसको नही चाहता है उसमे द्वेष करता है, और अनिष्ट मानता
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy