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________________ (50) हो भयभीत पथिक बेचारा इधर उधर को बहुत समय हो गया किन्तु सीधा मारग नही इतने में उन्मत्त एक गज़ पीछे दौड़ा उसे देखकर पथिक विचारा मन ही मन बड हे भगवन् ये काल सदृश गज भी जानि वचाने हेतु पथिक भी खूब दोडि भागि करि अध कप मे उसकी डाल पकडि पथी लटका ढरे हुये ने ऊपर को काटि रहे उस डाली की घबरा करि नीचे को चारि सर्प फुकार रहे बैठा जब दृष्टि दो श्याम जाता था, पाता था । आता है, घबराता है ॥२॥ लागा है, क्या पीछे जोर से का वृक्ष भागा है। निहारा है, विपदा का मारा है ॥३॥ उठा श्वेत देखा बड़ को, चूहे जड को । कूए की ओर निहार है, अजगर मुह फार है ||४|| टूटी डाल गिरा कूये मे ये पाँचो खा जा जायेंगे, पडा मौत के मुह में अब ये प्राण नही बचि पायेंगे । ये विचार करता ही था एक ओर उपद्रव आया है, पकड़ सूडि से टहने को हाथी ने खूब हिलाया है ||५|| तरु के ऊपर मधु मक्खी का एक बड़ा छत्ता भारी, टहनी हिलने से उड़ि मक्खी लिपट गई इसके सारी । काटि रही मधु मक्खी तन मे दुखित हो चिल्लाता है, दे दे मारे पाव पेड से हाहाकार मचाता है ॥६॥ इतने मे मधु छत्ते से इक बूंद शहद की टपकी है, ऊपर से आती लखि इसने फाडि मुँह लपकी है। शीघ्र मधु की बूंद चाटकर मूरख अत्यानन्द मनाता है, एक बूंद गिरि जाय और इस आशा से मुँह वाता है ॥७॥ इतने मे क्रोधित हो गज ने टहना फेरि हलाया है, मिन-भिन करि उडि लिपटी मक्खी पथिक खूब चिल्लाया है।
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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