SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७०) चचल चित्त करे न जब, राग द्वष हिलोर । आत्म तन्व वह ही लखे, नही क्ष व्ध नर ओर ॥३५।। निश्चल मन ही तत्व हैं, चचलता निज भ्राति । स्थिर मे स्थिरता राखि तज, अस्थिर-मूल अशान्ति ॥३६।। हो सस्कार अज्ञान मय, निश्चय हो मन भ्रान्त । ज्ञान संस्कृत मन करे, स्वय तत्व विश्रान्ति ॥३७।। चचल मन गिनता सदा, मान और अपमान । निश्चल मन देता नही, तिरस्कार पर ध्यान ॥३८॥ मोह दृष्टि से जव जगे, मुनि को रागद्वेष । स्वस्थ भावना आत्म की, करे मिटे उद्वेग ॥३९॥ जिस तन मे हो प्रीति, गिन उससे निज को ओर। हो स्थिर उत्तम काय मे, मिटे मोह की दौर ॥४०॥ आत्म भ्रान्ति गत दुख हो, आत्म ज्ञान से शान्त । इस विन शान्ति न हो, भले करले तप दुर्दान्त ॥४१॥ तन तन्मय ही चाहता, सुन्दर तन सुर भोग । ज्ञानी चाहे छूटना, तन विषयो से योग ॥४२॥ स्वसे च्युत पर मुग्ध नर, बंधता पर सग आप । । स्वस्थित पर से मुक्त हो, हरे कर्म सताप ॥४३॥ दिखते त्रय तन चिन्ह को, मूढ कहे निजरूप । ज्ञानी माने आपको, बचन विना चिद्र प ।।४४॥ आत्मविज्ञ यद्यपि गिने, जाने तन जिय भिन्न । पर-विभ्रम-सस्कार वश पडे भ्रांति मे खिन्न ॥४५॥ जो दिखते चेतन नही, चेतन गो-चर नाहिं। रोष-तोष किससे करू हू तटस्थ निज माहि ।।४६।। बाहर से मोही करे, अन्दर अन्तर आत्म । दृढ अनुभव वाला नही, करे ग्रहण और त्याग ॥४७॥
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy