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________________ ( ६४ ) EEEEEEEE इन्द्र फणीन्द्र-नरेन्द्र भी नही शरण दातार । मुनिवर 'अशरण' जानके, निज रूप वेदत सार ॥६॥ जन्म मरण एकहि करें, सुख दुख वेदत एक । नर्क गमन भी एक ही, मोक्ष जाय जीव एक ॥६६॥ यदि जीव तू है एकला. तो तज सब परभाव । ध्यावो आत्मा ज्ञानमय, शीघ्र मोक्ष सुख पाव ॥७०॥ पाप तत्त्व को पाप तो, जाने जग सव कोई। पुण्य तत्त्व भी पाप है, कहे अनुभवी कोई ॥७१॥ लोह वेडी बन्धन करे, यही स्वर्ण का धर्म । जानि शुभाशुभ दूर कर, यह ज्ञानी का मर्म ॥७२॥ यदि तुझ मन निर्ग्रन्थ है, तो तू है निम्रन्थ । जब पावे निर्गन्यता तब पावे शिव पन्थ ॥७३॥ ज्यो बीज मे है बड प्रकट, बड मे वीज लखात । त्यो ही देह मे देव वह, जो त्रिलोक का नाथ ॥७४॥ जो जिन है सो मैं हिह, कर अनुभव निन्ति । हे योगी । शिव हेतु तज, मन्त्र-तन्त्र विभ्रान्त ॥७॥ द्वि-त्रि-चार औ पाच-छ , सात पाच और चार । नव गुणयुत परमात्मा, कर तू यह निरधार ॥७॥ दो तजकर दो गुण गहे, रहे आत्म-रस लीन । शीघ्र लहे निर्वाण-पद, यह कहते प्रभु-जिन ॥७७॥ त्रय तजकर त्रयगुण गहे, निज मे करे निवास । शाश्वत सुख के पात्र वे, जिनवर करे प्रकाश ॥७८॥ कषाय सज्ञा चार तज, जो गहते गुण चार । हे जीव । निजरूप ज्ञान तू, होय पुनीत अपार ॥६॥ दस विरहित, दस के सहित- दस गुण से सयुक्त । निश्चय से जीव जान यह, कहते श्रीजिन मुक्त ॥१०॥
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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