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________________ ( ५४ ) आकार हैं सबके अलग, हो लीन अपने ज्ञान मे। जानो इन्हे सामान्यगुण, रक्खो सदा श्रद्धान मे ॥६॥ (२०) बारह भावना (जयचन्द्रजी) अनित्य-द्रव्यरूप करि सर्व थिर, परजय थिर है कौन । द्रव्यदृष्टि आपा लखो, परजय नय करि गौन ॥१॥ अशरण-शुद्धातम अरु पचगुरु जग मे सरनो दोय । मोह उदय जिय के वृथा, आन कल्पना होय ॥२॥ ससार-पर द्रव्यन ते प्रीति जो, है ससार अवोध । ताको फल गति चार मे, भ्रमण कह्योश्रुतशोध ॥३॥ एकत्व-परमारथ ते आतमा, एक रूप ही जोय । कर्म निमित्त विकलप घने, तिन नाशे शिव होय ॥४॥ अन्यत्व-अपने-अपने सत्व कं सर्व वस्तु विलसाय । ऐसें चितवं जीव जब, परते ममत न थाय ॥५॥ अशुचि-निर्मल अपनी आत्मा, देह अपावन गेह । जानि भव्य निज भाव को, चासो तजो सनेह ॥६॥ आलव-आतम केवल ज्ञान मय, निश्चय दृष्टि निहार । सब विभाव परिणाम मय बासव भाव विडार ॥७॥ संवर-निज स्वरूप में लोनता, निश्चय संवर जानि । तमिति गुप्ति सजम धरम धरै पाप की हानि ॥८॥ निर्जरा-संवर मप है सातना. पूर्द कर्म झड़ जाय । निलस्वरूप को पापकर, लोक शिखर जब थाय ॥६॥ लोक-लोक स्वरूप विचार, भातम रूप निहार। परमारप बदहार पुषि, मिसालाद तिवारि ॥६॥
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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