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________________ ( ४३ ) अनुभव बतायवे को, जीव के जतायवे को, काहू न सतायवे को, भव्य उर आनी है। जहां तहाँ तारवे को, पार के उतारवे को, सुख विस्तारवे को, ये ही जिनवाणी है। है जिनवाणी भारती, तोहि जपो दिन रैन, जो तेरा शरना गहे, सो पावै सुख चैन । जा वानी के ज्ञानते, सूझ लोकालोक, सो वानी मस्तक नवो, सदा देत हो धोक ।। (१८) भव्य जीवों के लिए सच्चा सुख प्राप्त करने योग्य तत्वचर्चा प्रश्न १-आत्मा क्या कर सकता है ? उत्तर-आत्मा चैतन्य स्वरूप है। वह ज्ञाता-दृष्टा के अतिरिक्त अन्य कोई भी कार्य नही कर सकता। प्रश्न २-आत्मा ज्ञाता-दृष्टा के सिवाय और कुछ नहीं कर सकता, तो फिर ससार और मोक्ष की व्यवस्था का क्या मतलब है ? उत्तर-आत्मा ज्ञाता दृष्टा ही है । आत्मा ज्ञाता-दृष्टा के उपयोग को जव पर पदार्थ की ओर लक्ष्य रखकर पर भाव मे यह 'मैं' ऐसा दृढ कर लेता है तव यही ससार कहलाता है और जब स्व की ओर लक्ष्य करके उपयोग को स्व मे यह 'मैं' ऐसा दृढ कर लेता है तब यही मोक्ष कहलाता है। 'स्व'की तरफ लक्ष्य रखकर स्व मे दृढता और पर की तरफ लक्ष्य रखकर पर मैं दृढता। इसके सिवाय अनादिकाल से और कुछ कोई भी जीव कर ही नही सका है और ना अनन्तकाल तक और कुछ कर ही सकेगा। प्रश्न ३-आत्मा ज्ञाता-दृष्टा के सिवाय और कुछ नहीं कर सकता तो फिर समस्त शास्त्रो से क्या लाभ है ?
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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