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________________ ( ३० ) अष्टकम् अनादिकाल से जग मे स्वामिन् जल से शुचिता को माना । शुद्ध निजातम सम्यक्, रत्नत्रयनिधि को नहि पहिचाना || अव निर्मल रत्नत्रय जलले, श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री वीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरुभ्य श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य, श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो, जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा । भव आताप मिटावन की निज मे ही क्षमता समता है । अनजाने अब तक मैंने पर मे की झूठी ममता है ॥ चन्दन सम शीतलता पाने श्री देव शास्त्र गुरु को व्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्र गुरभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थवरेभ्य श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्य, ससार ताप विनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा । अक्षयपद के बिना फिरा, जगत की लख चौरासी योनि मे । अष्ट कर्म के नाश करन को, अक्षत तुम टिंग लाया मैं | अक्षय निधि निज की पाने अब, देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्री देवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य, श्री अनन्तानन्त मिद्ध परमेष्ठिभ्य अक्षयपद प्राप्तये अक्षत निर्वपामीति स्वाहा । पुष्प सुगन्धी से आतम ने शील स्वभाव नशाया है । मन्मथ वाणो से विध करके, चहुगति दुख उपजाया है । स्थिरता निज में पाने को श्री देवशास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थंकरेभ्य श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्य कामवाण विध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ।
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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