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________________ प्रतिकूल सयोगो मे क्रोधित होकर ससार बढाया है। सन्तप्त हृदय प्रभु | चन्दनसम, शीतलता पाने आया है । ॐ ह्री देवशास्त्र गुरुभ्य ससार ताप विनाशनाय चदन निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ उज्ज्वल हू कुन्दधवल ह प्रभु । परसे न लगा हूँ किचित् भी। 'फिर भी अनुकूल लगें उन पर, करता अभिमान निरतर ही। जड पर झक-झुक जाता चेतन, की मार्दव की खडित काया। निजशाश्वत अक्षयनिधि पाने, अब दास चरण रज मे आया।। ॐ ह्री देवशास्तगुरुभ्य अक्षयपद प्राप्तये अक्षत निर्वपामीति स्वाहा ॥॥ यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं। निज अन्तर का प्रभु । भेद कहू, उसमे ऋजुता का लेश नही ।। चिंतन कुछ फिर सभापण कुछ, किरिया कुछकी कुछ होती है। स्थिरता निज मे प्रभु पाऊँजो, अन्तर कालुप धोती है । ॐ ह्री देवणास्त्रगुरुभ्य कामवाण विध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ अबतक अगणित जडद्रव्यो से प्रभु । भूख न मेरी शान्त हुई। तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही। युग-युग से इच्छा सागर मे, प्रभु | गोते खाता आया हूँ। पचेन्द्रिय मन के षटस तज अनुपम रस पीने आया हूँ। ॐ ह्री देवशास्त्रगुरुभ्य क्षुधारोग विनाशनाय नैवैद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ जग के जड दीपक को अबतक, समझा था मैंने उजियारा । झझा के एक झकोरे मे, जो बनता घोर तिमिर कारा।। अतएव प्रभो । यह नश्वर दीप, समर्पण करने आया हूँ। तेरी अतर लौ से निज अतर, दीप जलाने आया हूँ। ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्य मोहाधकार विनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ जड कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी । मै राग द्वेप किया करता, जब परिणति होती जडकेरी ।। यो भावकरम या भावमरण सदियो से करता आया है। निज अनुपम गध अनल से प्रभु | पर गध जलाने आया हू॥ "ॐ ह्री देवशास्त्रगुरुभ्य अप्टकर्म दहनाय धूप निर्वपामीति रवाहा ॥७॥
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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