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________________ ( १७१) पर्यन्त ऐसे के ऐसे रहता है तथा अविनाशी, अविकार, अचल, अनुपम सुख का निरन्तर अनुभव किया करता है। जो कोई भव्यजीव ऐसी आत्म भावना भाकर श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र का कार्य करते हैं, वे भी इस अनुपम अविनाशी सिद्ध पद को प्राप्त करते है और दुष्ट कर्मों को नाश कर देते हैं ॥६॥ जिनके उर विश्वास, वचन जिन शासन नाहीं; ते भोगातुर होय, सहैं दुख नरकन माहीं । सुख दुख पूर्व विपाक, अरे मत कल्पै जीया; कठिन कठिन ते मित्र, जन्म मानुष का लिया ॥७॥ सो बिरथा मत खोय, जोय आपा पर भाई; गई न लावै फेर, उदधि मे डूबी राई । भला नरक का वास, सहित जो समकित पाता%B वुरे बने जो देव, नृपति मिथ्यामत माता ॥८॥ अर्थ -जिन के मन मे जिनशासन के वचनो का अर्थात सर्वज्ञ भगवान के उपदेश का विश्वास नहीं है, वह जीव विषय भोगो मे मग्न पश्चात नरको मे दुख भोगते हैं। ससार मे सुख-दुख तो पूर्व कर्मों के उदय अनुसार होता है। अत हे जीव । इससे तू डर मत अर्थात अन्यथा कल्पना मत कर । उदय मे जो कर्म आया हो उसे सहन कर । हे मित्र । बहुत ही अधिक कठिनता से यह मनुष्य जन्म तुझे मिला है, इसलिये इसे तू व्यर्थ यो ही विषयो मे मत गवां । हे भाई । इस नर भव मे तू स्व-पर के विवेकरुप भेद विज्ञान प्रगट कर, क्योकि जिस प्रकार समुद्र मे डूबा हुआ राई का दाना पुन मिलना अत्यन्त कठिन है, उसी प्रकार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म बीत जाने के वाद पुन. प्राप्त करना कठिन है। सम्यक्त्व की प्राप्ति सहित तो नरकवास भी भला है परन्तु सम्यक्त्व रहित मिथ्यात्व भाव से भरा हुआ जीव देव अथवा राजा भी हो जाय तो भी वह बुरा हो है ॥७-८॥
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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