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________________ ( १६७ ) द्रव्य क्षेत्र काल सुध भावै, समता सामायिक ध्यावै । यो वह एकाकी हो है, निष्किंचन मुनि ज्यों सोहै ॥८॥ T अर्थ - वह श्रावक द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की शुद्धि पूर्वक समतारुप सामायिक को ध्याता है । अष्टमी, चतुर्दशी प्रोषध उपवास के दिन एकान्त मे रहता है और निष्परिग्रही मुनि समान शोभता है 11511 परिग्रह परिमाण विचारै, नित नेम भोग का धोरे । मुनि आवन बेला जावे, तब योग असन मुख लावै ॥ ६ ॥ अर्थ - वह श्रावक परिग्रह की मर्यादा का विचार करता है' और भोग-उपभोग की मर्यादा का भी हमेशा नियम करता है । मुनिबरो को प्रतिदिन आहार दान देने की भावना भाता है और जब ' मुनिवरो के आहार का अर्थ आने का समय बीत जावे तब ही स्वय योग्य शुद्ध भोजन करता है || || वे उत्तम किरिया करता, नित रहत पाप से डरता । जब निकट मृत्यु निज जाने, तब ही सब ममता भाने ॥१०॥ ' अर्थ - इस प्रकार धर्मी श्रावक सदा ही उत्तम कार्य करता है और पाप से सदा ही डरता रहता है । तथा जब मरण का काल समीप आया जानता है, तब तत्काल समस्त परिग्रह की ममता को छोड देता है ||१०|| ऐसे पुरुषोत्तम केरा, 'बुधजन' चरणो का चेरा । वे निश्चय सुरपद पावे, थोड़े दिन में शिव जोवें ॥११॥ अर्थ . -- बुधजन कहते हैं कि हम तो ऐसे उत्तम पुरुषो के चरणो के दास हैं । वे धर्मात्मा श्रावक तो नियम से देव होकर अल्पकाल मे ही मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं ॥११॥
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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