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________________ ( १४७ ) है । चारो गति मे जीव अकेला ही रहता है । तू चेतन एक है तो भी उसमे अनन्त गुण बसते हैं- सदाकाल विद्यमान रहते हैं । भावार्थ - जीव का सदा अपने स्वरूप से अपना एकत्व और पर से विभक्तपना है; इसलिए वह स्वयं ही अपना हित-अहित कर सकता है - पर का कुछ नही कर सकता। इसलिये जीव जो भी शुभाशुभ भाव करता है उनका आकुलतारूप फल स्वय अकेला ही भोगता है, उसमे अन्य कोई स्त्री, पुत्र, मित्रादि सहायक नही हो सकते, क्योकि वे सब पर पदार्थ हैं और वे सब पदार्थ जीव को ज्ञेय मात्र हैं इसलिये वे वास्तव में जीव के सगे सम्बन्धी हैं ही नही । तथापि अज्ञानी जीव उन्हे अपना मानकर दुखी होता है । पर के द्वारा अपना भला-बुरा होना मानकर पर के साथ कर्तृत्व- ममत्व का अधिकार माना है वह अपनी भूल से ही अकेला दुखी होता है । ससार मे और मोक्ष मे यह जीव अकेला ही है-ऐसा जानकर ज्ञानी जोव निज शुद्ध आत्मा के साथ ही सदैव अपना एकत्व मानकर अपनी निश्चय परिणति द्वारा शुद्ध एकत्व की वृद्धि करता है वह " एकत्वभावना" है ||४|| ५. अन्यत्व भाबना तू न किसी का तेरा न कोय, तेरा सुख दुख तुझ को होय | याते तुझको तू उरधार, पर द्रव्यन ते ममत निवार ॥५॥ अर्थ - हे जीव । तू अन्य किसी का नही और अन्य भी तेरा कोई नही है । तेरा सुख दुख तुझको ही होता है, इसलिये पर द्रव्य पर भावो से भिन्न अपने स्वरूप को तू अन्तर मे धारण कर एव समस्त पर द्रव्य पर भावो से मोह छोड । भावार्थ - जिस प्रकार दूध और पानी एक आकाश क्षेत्र मे मिले हुये हैं, परन्तु अपने-अपने गुण आदि की अपेक्षा से दोनो बिल्कुल भिन्न - भिन्न हैं, उसी प्रकार यह जीव और शरीर भी मिले हुये एकाकार दिखाई देते हैं, तथापि वे दोनो अपने-अपने द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव से बिल्कुल भिन्न भिन्न हैं- कभी एक नही होते । जब जीव और शरीर भी पृथक-पृथक है, तो फिर प्रगट रूप से भिन्न दिखाई देने वाले ऐसे
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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