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________________ ( १४ ) सो भावना - बारह जु भाऊँ भाव निरमल मैं व्रत जु बारह सदा चाहू, त्यागभाव प्रतिमा दिगम्बर सदा चाहूँ, ध्यान आसन वसुकर्म ते मैं छुटा चाहू, शिव लहू जहाँ मैं साधुजन को सग चाहूँ, प्रीति तिनही मैं पर्व के उपवास चाहूँ, आरम्भ मै सव इस दुःख पचम काल माही, कुल श्रावक मैं अरु महाव्रत धरि सको नाही, निबल तन मैंने गह्यो ॥७॥ आराधना उत्तम सदा, चाहूँ सुनो जिनराय तुम कृपानाथ अनाथ 'द्यानत' दया करना न्याय वसु कर्म नाश विकास ज्ञान, प्रकाश मुझको दीजिये । करि सुगति गमन समाधि मरन सुभक्ति चरनन दीजिए ||८|| जी । जी ॥ हरता अघ घिरता पद दातार हो, के, धर्मामृत उर तुमरे चरण सरोज म मैं वन्दो जिनदेव कर्म वध के होत हैं । उद्योत है ।। सोहना । (५) विनय पाठ पढ़े जो पाठ । इहि विधि ठाडो होय के, प्रथम धन्य जिनेश्वर देव तुम, नाशे कर्म जु आठ ॥१॥ अनत चतुष्टय के धनी, तुम ही हो हो सिरताज । तुम, तीन भुवन के राज ||२|| पीडा हरन, भवदधि-शोषणहार । मुक्ति वधूके कत तिहुँ जग की ज्ञायक हो तुम विश्व के अधियार 1 शिव सुख के करतार ॥३॥ करता धर्म-प्रकाश । धरता निजगुण रास || ४ || रूप | भूप ||५|| मोहना ॥ ६ ॥ करो । परिहरा | लह्यो । जलधिसो, ज्ञानभानु तुम नावत तिहुँ जग करि अति निरमल को, को, छेदने, और न कछु भाव । उपाव ॥ ६ ॥
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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