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________________ ( ११८ ) सजन संग्रह १. ज्ञान दर्पण चेतन क्यो पर अपनाता है, आनन्दघन तू खुद ज्ञाता है ॥टेका ज्ञाता क्यो करता बनता है, खुद क्रमवद्ध सहज पटलता है। सब अपनी धुन मे धुनता है, तब कौन जगत मे सुनता है ॥१॥ उठ चेत जरा क्यो सोता है, फिर देख ज्ञान क्या होता है। क्यो पर का बोझा ढोता है, क्यो जीवन अपना खोता है ॥२॥ पर का तू करता बनता है, कर तो कुछ भी नहीं सकता है। यह विश्व नियम से चलता है, इसमे नही किसी का चलता है ।। जो परका असर मानता है, वह धोखा निश्चय खाता है । जब जबरन का विष जाता है, तब सहज समझ मे आता है ॥४॥ जो द्रव्य द्वारे आता है, वह जीवन ज्योति जगाता है। सुखधाम चिन्तामणिज्ञाता है, आनन्द अनुभव नित पाता है ।।५।। २. चेतावनी स्वत' परिणमति वस्तु के, क्यो करता बनते जाते हो। कुछ समझ नहीं आती तुमको, नि सत्व बने ही जाते हो ॥१॥ अरे कौन निकम्मा जग मे है, जो पर का करने जाता हो। सब अपने अन्दर रमते है, तब किस विध करण रचाते हो ॥२॥ वस्तु की मालिक वस्तु है, जो मालिक है वही कर्ता है। फिर मालिक के मालिक बनकर, क्यो नीति न्याय गमाते हो ॥३॥ सत् सब स्वय परिणमता है, वह नही किसी की सुनता है। यह माने बिन कल्याण नहीं, कोई कैसे ही कुछ कहता हो ॥४॥ ३. धानतराय हम ना किसी के कोई ना हमारा, झूठा है जग का व्यवहारा। तन सबध सकल परिवारा, सो तन हमने जाना न्यारा ॥१॥
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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