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________________ (१०४) -समय मे भी जीवो मे ऐसा ही स्वभाव है, यह दर्शाते हुए नियमसार मे कहते है कि जैसे जीवो है सिद्धिगत वैसे ही सब ससारी है। वे भी जनम-मरणादिहीन अरु अष्टगुण सयुक्त है । अगरीर अरु अविनाश है निर्मल अतीन्द्रिय शुद्ध है। सिद्धलोके सिद्ध जैसे वैसे सब ससारी है ।। प्रभू महावीर ने आज के दिन ऐसा महिमावत सिद्धपद प्राप्त 'किया । कैसा था वह महावीर...... ...और किस प्रकार से उन्होने ऐसा सुन्दर सिद्धपद प्राप्त किया ?--कि जिसके आनन्द का उत्सव हजारो दीपको से आज भी सारा भारत मना रहा है ? हम सबकी तरह वे महावीर भगवान भी एक आत्मा है । हमारी तरह पहले वह भी ससार मे थे। अरे | वह होनहार तीर्थकर जैसा आत्मा भी जब तक आत्मज्ञान नहिं करता तब तक अनेक भव मे ससार भ्रमण करता है । इस प्रकार भव चक्र मे रुलते रुलते वह जीव 'एक बार विदेहक्षेत्र मे पुडरीकिणी नगरी के मधुवन मे पुरुरवा नामक भील राजा हुआ, उस बख्त सागरसेन नामक मुनिराज को देख के पहले तो वह उन्हे मारने को तैयार हुआ, किन्तु वाद मे उसको वनदेवता समझकर नमस्कार किया व उनके शात वचनो से प्रभावित होकर के मासादिक त्याग का व्रत ग्रहण किया। व्रत के प्रभाव से पहले स्वर्ग का देव हुआ, फिर वहाँ से अयोध्यापुरी मे भरतचक्रवर्ती का पुत्र मरीची हुआ; २४वे अन्तिम तीर्थंकर का जीव प्रथम तीर्थंकर का पौत्र हुआ। वहाँ अपने पितामह के साथ-साथ उसने भी दिगम्बरी दीक्षा ती ले ली, परन्तु वह वीतराग-मुनिमार्ग का पालन नहीं कर सका, उनसे भ्रष्ट होकर के उसने मिथ्यामार्ग का प्रवर्तन किया । मान के उदय से उसको ऐसा विचार हुआ कि जैन भगवान ऋपभदादा ने तीर्थकर होकर के तीन लोक मे आश्चर्यकारी मामर्थ्य प्राप्त "किया है वैसे मैं भी अपना स्वतन्त्र मत चलाकर उसका नेता होकर
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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