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________________ ( १०२ ) उत्तम नवीन शास्त्र पढ रहा हो, और दूसरे मुनिराज मे वह शास्त्र की उत्कंठा देखे तो तुरन्त ही बहुमान के साथ वह शास्त्र उनको समर्पण करते हैं, यह भी उत्तम त्याग का एक प्रकार है । सर्वत्र ममत्व को त्याग कर, सर्व परभाव के त्याग स्वरूप ज्ञान स्वभाव की आराधना मे तत्पय उत्तम त्यागी मुनिवरी को नमस्कार हो । Bringing ८. उत्तम आकिंचन्य धर्म की आराधना उत्तम आकिंचन व्रत धारे, परम समाधि दशा विस्तारै । भेदज्ञान के बल से सर्वत्र ममत्व छोडकर चैतन्य भावना मे रत होने वाले मुनिराज, शास्त्रो के गहरे रहस्य का ज्ञान दूसरे मुनिओ को भी बिना संकोच देते हैं; सिंह आकर के शरीर को खा जाय तो भी देह का ममत्व नही करते । चक्रवर्ती भरत जैसे क्षणभर मे षट्खड का वैभव छोड़कर के ज्ञाता स्वभाव के सिवाय कुछ भी मेरा नहीं'ऐसी अकिंचन भावनारूप परिणत हुए । 'शुद्ध ज्ञान दर्शनमय एक आत्मा ही मेरा है, इसके सिवाय अन्य कुछ भी मेरा नही' - ऐसे भेद ज्ञान के बल से देहादि समस्त परद्रव्यो मे, रागादि समस्त परभावो मे ममत्व का परित्याग करके जो अकिचन भावना मे तत्पर है ऐसे उत्तम आकिंचन्य धर्म के आराधक मुनिवरो को नमस्कार हो । १०. उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म की आराधना उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावे, नर सुर सहितमुकति पद पावै । जिस सीता जी के विरह मे पागल जैसे ही गये थे वही सीता द्वारा ललचाये जाने पर भी भगवान रामचन्द्र जी विषय भोगों में ललचाये नही व उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म की आराधना मे लीन होकर के सर्वज्ञ परमात्मा हुए । धर्मात्मा जयकुमार देवीयो के द्वारा भी ब्रह्मचर्य से डिगे नहीं,
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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