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________________ ( १०० ) अपने आत्मा को भिन्न जान लिया है, देह को भी अत्यत जुदा जानकर उसका भी ममत्व छोड दिया है, और पवित्र चैतन्यतत्त्व की आराधना मे जो तत्पर है ऐसे मुनिवरो को किसी भी परद्रव्य के ग्रहण की लोभवृत्ति नही होती, भेदज्ञानरूप पवित्र जल से मिथ्यात्वादि चीको धो डाली हैं, वह शोचधर्म के आराधक है । अहा, जगत के समस्त पदार्थो संवधी लोभ को छोड करके, मात्र चैतन्य को साधने मे ही तत्पर ऐसे यह शौचधर्मवत मुनिवरो को नमस्कार हो । ५. उत्तम सत्यधर्म की आराधना उत्तम सत्य बचन मुख बोले, सो प्राणी ससार न डोलें । मुनिराज वचनविकल्प को छोड़करके सत्स्वभाव को साधने मे तत्पर है, और यदि वचन बोले भी तो वस्तुस्वभाव के अनुसार स्वपर हितकारी सत्यवचन ही बोलते है; उसको सत्यधर्म की आराधना होती है । मुनिराज सन्धग्ज्ञान से वस्तुस्वभाव जान करके उसी का उपदेश देते है, श्रोताजन आत्मज्योति के सन्मुख हो और उनका अज्ञान दूर हो वैसा उपदेश देते हैं। और आप स्वयं भी आत्मज्योति मे परिणत होने के लिये उद्यत रहते है । ऐसे उत्तम सत्यधर्मं के आरा धक सन्तो को नमस्कार हो । ६. उत्तम संयम धर्म की आराधना उत्तम संजम पाले ज्ञाता, तर भव सफल करै ले साता । भगवान रामचन्द्र जी मुनि होकर के जव निज स्वरूप को साथ रहे थे तब, प्रतीन्द्र हुए सीता के जीवने उन्हें डिगाने की अनेक चेष्टाए की, लेकिन रामचन्द्र जी अपने उत्तम सयम की आराधना मे दृढ रहे और केवलज्ञान प्रगट किया । वैसे ही श्रावकोत्तम श्री सुदर्शन शेठ को प्राणान्त जैसा प्रसग
SR No.010122
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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