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________________ 1 , 1 है ज्ञानरूप जो शुद्धभावो उनका जो भवन है; आत्मा स्वयं उन भावो का उत्कृष्ट साधन होत है |२४|| निज 'करण - शक्ति 43 जानरे तू बाह्य साधन शोध ना; आत्मा ही तेरा करण है फिर बात दूसरी पूछ ना ॥२५॥ निज आत्मा निज आत्म को ही ज्ञान भाव जो देत है, उसका ग्रहण है आत्म को यह 'सप्रदान' 44 स्वभाव है ||२६|| उत्पाद - व्यय से क्षणिक है पर ध्रुव की हानि नही, सेवो सदा सामर्थ्य ऐमे 'अपादान' 45 का आत्म मे ॥२७॥ भाव्यरूप जो ज्ञान भावो परिणमे है आत्म मे, 'अधिकरण ''" उनका आत्म है सुन लो अहो जिन वचन मे ||२८|| है 'स्व अरू स्वामित्व " मेरा मात्र निज स्वभाव मे' 348 नही स्वत्व मेरा है कभी निज भाव से को अन्य मे ॥ २६ ॥ अनेकान्त है जयवन्त अहो । निज शक्ति को प्रकाशता, शक्ति अनन्ती मेरी वह मुझ ज्ञान मे ही दिखावता ||३०|| यह ज्ञान लक्षण भाव सह भावो अनन्ते उल्लसे, अनुभव करूं उनका अहो । विभाव कोई नही दिखे ||३१|| जिन मार्ग पाया में अहो | श्री गुरु वचन प्रसाद से, देखा अहा निजरूप चेतन पार जो पर भाव से ||३२|| निज विभव को देखा अहो | श्री समयसार प्रसाद से, निज शक्ति का वैभव अहो । यह पार है पर भाव से ||३३|| ज्ञान मात्र ही एक ज्ञायक पिण्ड हू में आतमा, अनन्त गम्भीरता भरी मुझ आत्म ही परमात्मा ||३४|| आश्चर्य अद्भूत होत है निज विभव की पहचान से, आनन्दमय आह्लाद उछले मुहूर् मुहूर् ध्यान से ||३५|| अद्भुत अहो ! अद्भुत अहो । है विजयवन्त स्वभाव यह, जयवन्त है मुझे गुरु देवने निज निधान बता दिया ॥ ३६ ॥
SR No.010120
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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