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________________ ( 256 ) निस्सार तथा खोटे फलो की उत्पादक जानकर व्यर्थ समझता है, कुदेव या अदेव मे देवबुद्धि, कुगुरु या अगुरु मे गुरुवुद्धि तथा इनके निमित्त "हिंसा करने मे धर्म मानना आदि मूढदृष्टिपने को मिथ्यात्व समझ दूर ही से तजता है, यही सम्यक्त्वी का अमूढ-दृष्टिपना है / सच्चेदेव, गुरु, धर्म को ही स्वरूप पहचान कर मानता है। प्रश्न २३६-उपब हण अंग किसे कहते हैं ? उत्तर-अपनी तथा अन्य जीवो की सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र शक्ति का वढाना, उपवृ हण अग है। इसको उपगूहन अग भी कहते हैं। पवित्र जिनधर्म मे अज्ञानता अथवा अशक्यता से उत्पन्न हुई निन्दा को योग्य रीति से दूर करना तथा अपने गुणो को वा दूसरे के दोषो को ढाकना सो उपगृहन अग है। प्रश्न २४०-स्थितिकरण अंग फिसे कहते हैं ? उत्तर-आप स्वय या अन्य पुरुष किसी कपायवश ज्ञान, श्रद्धान, चारित्र से डिगते या छूटते हो तो अपने को वा उन्हे दृढ तथा स्थिर करना से स्थितिकरण अग है। प्रश्न २४१-वात्सल्य अंग किसे कहते हैं ? उत्तर-अरहन्त, सिद्ध, उनके विम्ब, चैत्यालय, चतुर्विध सघ तथा शास्त्रो मे अन्त करण से अनुराग करना, भक्ति सेवा करना सो वात्सल्य है / यह वात्सल्य वैसा ही होना चाहिये जैसे स्वामी मे सेवक की अनुराग पूर्वक भक्ति होती है या गाय का बछडे मे उत्कट अनुराग होता है। यदि इन पर किसी प्रकार के उपसर्ग या सकट आदि आवे तो अपनी शक्ति भर मेटने का यत्न करना चाहिये, शक्ति नही छिपाना चाहिये। प्रश्न २४२-प्रभावना आग किसे कहते हैं ? उत्तर-जिस तरह से बन सके, उस तरह से अज्ञान अन्धकार को दूर करके जिन शासन के माहात्म्य को प्रगट करना प्रभावना है अथवा -अपने आत्मगुणो को उद्योत करना अर्थात रत्नत्रय के तेज से अपनी
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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