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________________ ( 234 ) क्षयोपशम या बहिरङ्ग चारित्र से इसका कुछ सम्बन्ध नहीं है। जगत् मे एक सम्यग्दृष्टि ही ज्ञानी है / शेप सब जगत् अज्ञानी है। (E86, 660, 661) प्रश्न २२४-आत्मा का सामान्य स्वरूप क्या है ? उत्तर-(१) अवद्धस्पृष्ट (2) अनन्य (3) नियत (4) अविशेष (5) असयुक्त (E) शुद्ध (7) ज्ञान की एक मूर्ति (8) सिद्ध समान् आठ गुण सहित (8) मैलरहित शुद्ध स्फटिकवत् (10) परिगहरहित आकाशवत् (11) इन्द्रियो से उपेक्षित अनन्त ज्ञान दर्शन वीर्य को मूर्ति (12) अनन्त अतीन्द्रिय सुखरूप (13) अनन्त स्वाभाविक गुणो से अन्वित (युक्त) आत्मा का सामान्य स्वरूप है। (1001 से 1005) प्रश्न २-५-अवद्धस्पष्टादि का कुछ स्वरूप बताओ? उत्तर-(१) आत्मा द्रव्यकर्म, भावकर्म से वह नहीं है नथा नोकर्म से छ्या नही है इसको अवद्धस्पृष्ट कहते है (2) आत्मा मनुष्य तिर्यञ्चादि नाना विभाव व्यञ्जन पर्यायल्प नहीं है यह अनन्य भाव है (:) आत्मा में जानादि गुणो के स्वाभाविक अविभाग प्रतिच्छेद की हानिवृद्धि नही है यह नियत भाव है (4) आत्मा मे गुणभेद नहीं है यह अविणेप भाव है (5) आत्मा राग से सगुस्त नहीं है यह असात भाव है। (s) आत्मा नी पदार्थ रप नहीं है यह शुद्धभाव है। (1001 मे 1005) प्रश्न 226-- इन्द्रियसुख का संद्धान्तिक स्वरप बताओ? उत्तर-(१) जो पराधीन है क्योकि कर्म, इन्द्रिय और विषय के अधीन है (2) बाधा माहित है क्योति आकुलतामय :(B) व्यछिन्न है क्योकि अमाता के उदय ने टूट जाता है (4) बन्ध का गारण है क्योकिगग का अविनाभावी है (5) अस्थिर है पयोगि हानि बद्धि महित है (E) दुगम्प गयोगिनणा या चीज है / अत सम्माष्ट की इनमे नि नही हानी।
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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